कुंडलिनी शक्ति

कुंडलिनी शक्ति: 
मानव का शरीर देव-मंदिर है तथा इसमें इष्टदेव का चिर निवास है.. किंतु अज्ञानवश हम उसे जानने में असमर्थ रहते हैं.. इष्टदेव की अपार शक्ति को अपनी क्रिया शक्ती के द्वारा पहचानने और उसकी सुषुप्ती को चैतन्य बनाकर आत्मकल्याण के लिये पूर्वचार्यो ने अनेक मार्ग खोज निकाले हैं जिनमे एक मार्ग है “कुंडलिनी शक्ती की साधना”।
कुंडलिनी शक्ति का निवास मूलाधार चक्र में है.. यह चक्र रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोर में अंडकोश व गुदाद्वार के मध्य है.. तंत्र ग्रंथो में इसका जो उल्लेख मिलता है उसमें कहा गया है की यह स्वयंभूलिंग है.. जहाँ साढ़े तीन कुण्डल मारकर कुंडलिनी शक्ति सुप्तवस्था मे होती है.. उसका सिर स्वयंभूलिंग के सिर पर है और वह अपनी पूँछ को अपने मुख में डाले हुए है।
कुंडलिनी शक्ती को “कुल कुंडलिनी, भुजानगिनी, सर्पिनि, प्रचण्ड शक्ति, मूलाधार निवासिनी, वल्याकार सर्पिनि, विद्युत, अग्निमय, मुक्तशक्ति, महादेवी, सप्तचक्र भेदिनी, विश्व शक्ति, विद्युत प्रवाह रूपीनी, सर्व सौंदर्य शलिनी, सर्व सुखदायिनी, कुंडलेय, अपराजिता, विषतंतुस्वरूपा, मूलविध्या, कुटिलरुपनी” आदि अनेक रूपों से जाना जाता है… तंत्र मे इसे “वागेश्वरी” कहा गया है।
“स्वर की उत्स- हे कुंडलिनी तुम्हीं हो पंचाष्टवी”
ऋगवेद में यह वगदेवी स्वयं घोषित करती है.. 
“मैं जिसे चाहती हुँ उसे महान महान शक्तिशाली, संत, ऋिष, और ब्रह्म बना देती हुँ।
इस प्रकार योग, तंत्र, पुराण आदि में जिस कुंडलिनी जी का उल्लेख है, उसकी वास्तविकता और महत्व को भारतीय ऋिषयों ने सृष्टि के आदिकाल से स्वीकार किया।
यह महाशक्ति है.. जब यह जाग जाती है तब इसकी तीव्र गती प्रारम्भ होती है.. और एक तत्व को दूसरे तत्व में लीन करती हुई यह परम शिव से जा मिलती है.. षटचक्र निरुपण में कहा गया है..
मेरोब्रह्म प्रदेशो शिशिमिहिर शिरे सव्यदक्षे निषण्णे।
मध्ये नाड़ी सुषुमना त्रित्यगुनमयी चंद्र्सुर्याग्नीरूपा ।।
मेरुदंड के दाहिने ओर इड़ा नाड़ी व बाईं ओर पिंगला नाड़ी हैं मध्य मे सुषुम्ना है.. जो सूर्य, चंद्र और अग्निरूप हैं।
योग में वर्णित षटचक्रों – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुध, और आज्ञा चक्र का स्थान आधुनिक शरीर विज्ञान की दृष्टि से इस प्रकार किया गया है:- श्रोनि जालिका, अधोजठर जालिका, सौर जालिका, ह्रदिय जालिका, ग्रसनी जालिका, और नासारोमक जालिका..।
सुषुमना गुदास्थि की त्रिकोणीय पीठ पर टिकी है… योगशास्त्रों मे इसी स्थल को “ब्रहमाँड” का द्वार बताया है.. गुदास्थि और त्रीकास्थि के सामने मूलाधार शिरा और उसके ऊपर की पेशी का आकार अंडे जैसा है.. जिसे कुंड कहते हैं.. इसी कुंड के केंद्र में कुंडलिनी शक्ति रहती है।
योग में जिन छः चक्रों का उल्लेख है.. वो सभी सुषुमना नाड़ी में स्थित हैं…
सिर के ऊध्र्र्व भाग में चन्द्रमा का स्थान है.. जिसे सहस्रार कहा गया है.. चन्द्रमा से अमृत समान रस टपकता है.. यह रस शरीर में शक्ती के रूप में रहता है.. नाभि मंडल में सूर्य का निवास है.. सूर्य और चंद्र दोनो अधोमुखी हैं.. सूर्य इस अमृतमयी शक्ती को जलाता और नष्ट करता रहता है.. योगदर्शन सूत्र और वाचस्पति भाष्य में कहा गया है.. सूर्यद्वारे सुषुम्नायाम् नाद्या।
जो प्राणधारा अधोमुखी होकर क्षीण होती रहती है कुंडलिनी जी के जगते ही अशोमुखी सूर्य ऊध्र्व्मुखी हो जाने पर अमृत रूपी रस की वर्षा होने लगती है… इसके बाद कुंडलिनी जी की भी ऊध्र्व्गति आरम्भ हो ज़ाती है.. सुषुम्ना नाड़ी से होकर यह शक्ति सहस्रार की और बढ़ने लगती है। जननी सुषुम्ना कमल नाल जैसी है.. इसकी भीतरी नाड़ी को वज्रा कहा जाता है.. इसके भीतर चित्रिनी नाड़ी है जिससे कुंडलिनी शक्ति संचारित होती है.. इसी चित्रिनी मे षटचक्र हैं।
कुंडलिनी शक्ती जब ऊध्र्व्गामी होती है तब ये चक्र खुलने लगते हैं.. योग में इसे ही चक्र वेध कहा गया है।
कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिय ऋिषयों ने कई उपाय बताये हैं.. जैसे- हठयोग, राजयोग, मंत्रयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, लययोग एवं सिद्धयोग आदि। कुंडलिनी न जागने और प्रकृति तथा पुरुष अथवा शक्ति और शिव संयोग न होने तक जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है.. जब यह योग हो जाता है तब अमरत्व या मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पुराण में एक कथा है- शिव के गले मे मुंड मला देखकर शिवा ने पूछा ये मुंड किसके हैं और अपने इन्हें क्यूँ धारण किया हुआ है?.. शिव ने उत्तर दिया, हे पार्वती तुम कई बार जन्मी और मृत्यु को प्राप्त हुई.. ये मुंड तुम्हारे ही हैं और सूचित करते हैं कि तुम्हारे कितने जन्म हुए.. शिवा ने यह सुनकर अमरत्व की इच्छा प्रकट की और शिव ने उन्हें मंत्र दिया। शिव और शक्ति मिलन फिर उनका कभी वियोग ना होना ही अमरत्व है.. वेदों ने इसे स्वीकार करते हुए कहा है.. उसको जानकर ही मृत्यु को पार किया जा सकता है.. इसका कोई उपाय नहीं।
क्रिया भेद से कुंडलिनी जी चार प्रकार से प्रकट होती है:
1. किर्यावती
2. वर्णमयी
3. कलात्मा
4. वेधमयी
जागृत कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना मार्ग से षटचक्रों को वेधती हुई शिव से जा मिलती है.. शंकराचार्य ने इसका वर्णन आनंद लहरी में किया है।
मही मूलधारे कम्पी मणिपुरे हुतवहम
स्थितम् स्वाधिष्ठाने ह्रदिमरुतमाकाशमुपरि।
मनोपिभ्रूमध्ये सकलमपि भित्वाकुलपथम्
सहस्रारे पद्मे सह रहसी पत्या विहरसि।।
कुंडलिनी शक्ति मूलाधार चक्र से उठकर मणिपुर चक्र से होते हुए हृदयाकाश और भूमध्य को पार करते हुए सहस्रार में मिलती है।

 
 
 
 

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