स्वामी विवेकानंद का कृतिक एवं व्यक्तित्व

स्वामी विवेकानंद का कृतिक एवं व्यक्तित्व

इस भारत भूमि में ऐसे ऐसे कर्म योद्धाओं का अवतरण देखा है जिन्होंने अपने समय एवं समाज के साथ एक बड़ा हस्तक्षेप ही नहीं किया; बल्कि पूरे विश्व में अपने विचार के माध्यम से विचारों का ऐसा पूंज फैलाया जिन्होंने समाज में बड़े परिवर्तन की एक बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। भारतीय परंपरा में यह गूँजता ही रहा है कि यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत्।

अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाम साधूनां विनाशाय च दुस्कृताम्।

धर्म संस्थापनार्थाय सम्भावमि युगे-युगे॥

अर्थात जब-जब धर्म की हानि हुई है कोई न कोई महापुरुष राम,कृष्ण इसामसीह, मोहम्म्द, गुरुनानक आदि जन्म लेकर इस पृथ्वी पर न केवल समरसता फैलाई है, बल्कि समाज की समस्त कुरुतियों को बदलने के लिए भागीरथ प्रयत्न किया है। इसी में एक विवेकानंद हैं जिन्होंने अल्पायु में अपने विचारों के चकाचौंध से न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया।

स्वामी विवेकानंद ने वेदांत के द्वारा ऐसे नये मानव का निर्माण करना चाहते थे जो पूरे विश्व में शांति, सदभाव, विश्व बंधुत्व की भावना का प्रचार – प्रसार कर सके। उनके हृदय में राष्ट्रनिर्माण की भावना में विश्व निर्माण की भावना भी समाहित है। स्वामी विवेकानंद के चिंतन में जीवन एवं जगत के सभी पहलू के अंकूर मिलते हैं। उनमें एक तरफ मन के परिवर्तन की संकलपना है तथा आत्म उत्थान की भावना है तो दूसरी तरफ पूरे विश्व के समाज सुधार की प्रेरणा और नयी सृष्टि का संकल्प भी है। ऐसे स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के प्रसिद्ध दत्त परिवार में 12 जनवरी 1863 ई. में हुआ।  इनका वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ था तथा पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था। जो बंगाल के सुपसिद्ध वकिल थे। इनकी माता श्रीमती भुनेश्वरी देवी धर्म, परायणा, साध्वी, बुद्धिमती एवं साहसी महीला थीं। इनके बाबा श्री दुर्गाचरण दत्त बहुत ही सज्जन, नेक और अच्छे इंसान थे, जो फारसी, संस्कृत एवं कानून के बहुत बड़े ज्ञाता थे। स्वामी जी पर अपने माता-पिता एवं दादा का बहुत प्रभाव था। कहा जाता है कि प्रारंभ से ही महापुरुषों के लक्षण दिखने लगते हैं । होनहार विरवान के होत चिकने पात,बचपन से ही विवेकानंद को पूजा-पाठ एवं ईश्वर आराधना में बड़ा मन लगता था।आराधना में वे इतनी तल्लीन हो जाते थे की भौतिक जगत से पूरी तरह कट जाते थे।

इनके पिता की बड़ी लालसा थी की उनका बेटा वकील बने और उनकी परंपरा को आगे बढाये\उनके पिता सहृदय गृहस्थ और एक सामाजिक प्राणी थे और अपने पुत्र में इन्हीं का विकास देखना चाहते थे, लेकिन शायद परमात्मा  को यह मंजूर नहीं था। इनकी शिक्षा –दीक्षा घर पर ही हुई; क्योंकि प्राथमिक शिक्षा अपरिहार्य कारण से नियमित   पाठशाला में नहीं हो सकी। इनके पिता ने इनके पठन-पाठन की घर में व्यवस्था कर दी, सात वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने संपूर्ण व्याकरण कंठस्थ कर लिए तथा रामायण एवं महाभारत के लंबे-लंबे प्रसंगों के अपने स्मृति में बसा लिया।  सात वर्ष की आयु में ही कॉलेज में भरती हो गये । इन्होंने पढने के साथ-साथ खेल-कूद , व्यायाम, संगीत,नाटक आदि विषयों में रूचि ली और सभी में उनकी विशेष दक्षता समय-समय पर प्रकट होती रही। सोलह वर्ष की आयु में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की और प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया । बाद में एसेम्बली इंस्ट्रीक्शन में पढने गये। अध्ययन में उनकी प्रतिभा सदैव सर्वोच्च रही।  उनकी इस प्रतिभा को देखकर ड्ब्लू डब्लू हेस्टे ने एक बार कहा कि…

“I have travelled far and wide but I have never come across a lad of his talent and possibilities. He is bound to make his mark in life”

प्राचार्य विलियम हेस्टी की प्रेरणा से रामकृष्ण परंहस के साथ 1881 में दक्षिनेश्वर मंदिर कलकता में उनकी भेंट हुई, जो इनकी जीवनधारा को बदलने में अहम योगदान दिया। रामकृष्ण परंहस उन्हें देखते ही पहचान लिया और कहा “मैं जानता हूँ आप स्वयं नारायण के अवतार है जिन्होंने मानवता का उद्धार करने के लिए इस पृथ्वी पर जन्म लिया है और यही से उन दोनों में गुरु शिष्य का संबंध विकसित हुआ। नरेंद्र ने पहला सबाल किया, क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है? रामकृष्ण ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया।

“God can be realized one can see and talk to him as I am doing with you But who cares to do so.”

कुछ समय बाद नरेंद्र के पिता का देहांत हो गया और गृह संचालन की पूरी जिम्मेदारी उनपर आ गयी, लेकिन वे घबराये नहीं। नरेंद्र की ईश्वर के प्रति आस्था बढती गयी। एक दिन उनको प्रतीत हुआ कि ईश्वर का भी अस्तित्व है क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही कठिनाईयों का साहस के साथ सामना किया जा सकता है। लगातार रामकृष्ण के सानिध्य में धीरे-धीरे गृहस्थ से सन्यांसी बना दिया। सन 1886 में रामकृष्ण के मृत्यु के पश्चात नरेंद्र ने उनकी शिक्षा का प्रचार –प्रसार अपने जीवन का मूल मंत्र बनाया। नरेंद्र आरंभ से जिज्ञासु थे वे हर बात में सत्य का अनुसंधान करने लगते थे। अपने छात्र जीवन से ही उनकी रूची शास्त्रों, साधु संतों और धर्म आलोचना आदि में अधिक थी। अपने इसी स्वभाव के कारण विश्व उनके लिए एक जिज्ञासा का विषय बनता चला गया और वे निरंतर जीवन पर्यंत सत्य की खोज में लगे रहे। जीवन के इस सोच के विकसित होने के कारण उन्होंने यह संकल्प व्यक्त किया कि हमें जीवन की प्राप्ति तभी हो पाती है जब पूरी लगन, निष्ठा और समर्पण के साथ किसी के लक्ष्य के लिए लगते हैं। उन्होंने यह तय कर लिया था कि जीवन की मुक्ति सन्यास में है इसलिए एक जगह उन्होंने कहा है कि “मैं समझता हूँ कि सन्यास ही मानव जीवन का सर्वोच्य आदर्श होना चाहिए। नित्य परिवर्तनशील अनित्य संसार के पीछे सुख की कामना के पीछे दौड़ने की अपेक्षा उस अपरिवर्तनशील सत्यम शिवम सुंदरम को पाने के लिए प्राणार्पन से कोशिश करना ही सौ गुणा श्रेष्ठ है।“ (विवेकानंद साहित्य खण्ड -7, पृष्ठ -234)

नरेंद्र के स्वभाव को देखते हुए रामकृष्ण ने एक बार कहा था कि “जिस दिन नरेंद्र का जीवन दु:खों, काँटों और विपतियों से सन्निकट होगा उसके चरित्र का अभिमान विचलित होकर अनंत करूणा में परिवर्तित हो जाएगा। उसके अहम जो दृढ़ विश्वास है वह तमाम निराश आत्माओं में उस विश्वास और आस्था को उत्पन्न करने का साधन बनेगा, जिसे उन्होंने थोड़े समय में खो दिया है। शक्तिशाली आत्मनियंत्रण के उपर आधारित उनके व्यवहार की जो स्वच्छंदता है वो दूसरे की आँख में आत्मा की सच्ची स्वतंत्रता बन कर चमकेगी। (समकालीन भारतीय दर्शन, डॉ. श्रीमती लक्ष्मी सकसेना,पृष्ठ -90)

1886 ई. में श्री रामकृष्ण परम्हंस का मृत्यु हुआ। मृत्यु के पूर्व उन्होंने नरेंद्र का स्पर्श करते हुए अपना सर्वस्व उतराधिकार उन्हें दिया और कहा कि बेटा आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर बन गया। स्पर्श के साथ ही नरेंद्र को समाधि के आनंद की अनुभूती हुई। अब नरेंद्र नरेंद्र न रह कर स्वामी विवेकानंद हो गये और उनके जीवन में हमें ज्ञान, भक्ति, कर्म और वैराग्य का अपूर्व सम्न्वय मिलने लगा। 1888 ई. में स्वामी विवेकानंद जी हाथ में कमंडल लिए सन्यासी वेशभूषा में उतर भारत के प्रमुख स्थानों जैसे-वाराणसी, हरिद्वार , वृंदावन, आगरा, अयोध्या गये। बाद में हिमालय कुछ समय रहने के बाद बिहार के प्रमुख नगरों, राजस्थान में जयपुर,अलवर्। गुजरात में अहमदबाद, भुज,सोमनाथ, द्वारका,पोर्वंदर, माहवीर, पाली टाना, काठियावाड़ ।महाराष्ट्र में बम्बई ,पुणा, आंध्रप्रदेश में कोचिन, त्रिवेंद्रम, तमिलनाडु में मदुरै एवं कन्याकुमारी की यात्रा की। इस यात्रा भ्रमण का विवेकानंन्द के अनुभव संसार में कई अनुभूतियाँ जाग्रत हुए। उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों के रीति-रिवाज, आचार-विचार आदि का परिचय पाया। इस परिचय से स्वामी विवेकानंद को भारत के बारे में जो ज्ञान प्राप्त हुआ वो साधारण न था उसे उन्हें भारत की जनता के निर्धंता,अशिक्षा तथा कुसंस्कारों आदि का पता लगा।

हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा में स्वामी जी ने देखा की धर्म, देश भारत वर्ष दुभिक्ष, महामारी, दु:ख, रोग, शोक से जर्जरित है। धनिक लोग गरीबों का चूसकर बिलास की पिपासा को तृप्त कर रहे हैं। आहार से भुखे –प्यासे  लोग भुमंडल पर युग युगांतर की निराशा लिए अन्न के लिए तरस रहें है। शिक्षा के अभाव के कारण पुरोहित वर्ग धर्म से भय्भीत कर रहे हैं। धर्म के बारे में अज्ञान होने के कारण भारतीयों के हृदय में न आशा है बल है, इन सबकों देखकर  स्वामी का हृदय द्रवीभूत हो गया। और उन्होंने कन्याकुमारी के पास शीलासन पर उपर्युक्त बुराई को दूर करने का संकल्प लिया।

स्वामी जी का विश्वास था बभुसितों को शिक्षा नहीं दी जा सकती और उसके बिना धर्म की प्राप्ति नहीं हो  सकती। रामकृष्ण कि मौलिक शिक्षा थी कि सभी धर्म सत्य है, और ईश्वर की उपलब्धी की उपाय मात्र है।

स्वामी विवेकानंद के द्वारा की यही सम्पति थी। उनकी पीठ पर व्यापीत युग-युग की संस्कृति का वरदहस्त था।

विश्व संसद और पाश्चात देशों की यात्रा

31 मई 1893 ई. को स्वामी विवेकानंद अपने गुरू की लोक कल्यायणी इच्छा को लेकर भारत से अमेरिका के तरफ प्रस्थान किया और लेभर, सिंगापुर,हांगकांग, कैण्टन और नागाशाकी होते हुए जुलाई मध्य तक शिकागों पहुँच गये। इस यात्रा में स्वामी जी ने एशिया की सांस्कृतिक एकता और उसमें भारतीय अनुदान की अनुपम झाँकी प्रस्तुत की, चीन में उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की अमूल्य पाण्डुलीपियाँ भि लि जिनका उन्होंने अपने किया । जापान में उन्हें पवित्र सूत्रों का श्लोक मिला इन सब वस्तुओं को देखकर उन्हें पूर्ण विश्वास हो ग्या कि एशिया के आध्यात्मिक एकता में भारत का कितना महान योगदान रहा है। यहाँ पहुँचकर अमेरिका की शक्ति , धन, सृजनात्मक प्रतिभा एवं समृद्धि को देखकर वे आश्चर्य चकित हो उठे। जिस उद्देश्य से वे अमेरिका गये, उस धर्म सभा में नियमानुसार उन्हें प्रवेश नहीं मिल पा रहा था, लेकिन प्रोफेसर जे.एय.राइट के सहयोग से अंतत: उन्हें धर्म संसद में प्रवेश मिला, 11 सितंवर सोमवार 1893 में कोलनगर हॉल में धर्म संवाद प्रारंभ हुआ। भारत से आये प्रतिनिधियों में ब्रह्म समाज के प्रताप चंद्र मजुमदार और नागरकर गाँधी जैन समाज के वीर चंद, कियोसफी के ओर से एनी बेसेंट एवं चक्रवर्ती तथा स्वामी विवेकानंद आदि हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

विवेकानंद ने अपने वक्तव्य की शुरुआत करते हुए कहा कि अमेरिकावासियों भाईयों एवं बहनों । उनके इस संबोधन को सुनकर पूरी सभा दो मिनट तक करतल ध्वनि करता रहा। स्वामी जी ने अपना भाषण हिंदू धर्म से आरंभ किया। उन्होंने हिंदू धर्म को सभी धर्मों का जनक बताया; क्योंकि इसी धर्म ने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया। अपने मत को पुष्टि के लिए उन्होंने गीता के पदों के उद्धरणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म में साम्प्रादायिकता , संकीर्णता, धर्मांधता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार स्वामी जी ने इस महान आध्यात्मिक धर्म महासभा में वेदांत के विजय का शंखनाद किया। उन्होंने अमेरिका इंग्लैंड आदि देशों को भारतीय दर्शन के मौलिक सिद्धांत की जानकारी दी। यह विश्वविद्यालय के लिए एक नया संदेश था। इस कारण अंधकार में भटकते हुए मनुष्य को एक अभिनव ज्ञान का मार्ग प्रशस्त हुआ।

स्वामी जी ने अमेरिका निवासियों को हिंदुओं के बारे में बताया कि हिंदू लोग तुम्हें पापी कभी नहीं कहते । तुम सब अमृत की संतान हो। इस पृथ्वी पर पाप नाम की कोई चीज नहीं है। यदि कोई पाप है तो वह है मनुष्य को पापी कहना। तुम सर्वशक्तिमान आत्मा ही शुद्ध मुक्त महान है। उठो, जागो और स्वंय को प्रकट करने की चेष्टा करो” (डॉ. सत्येंद्रनाथ मजुमदार, विवेकानंद चरित्र, पृष्ठ- 110) उनको इस मनोवैज्ञानिक व्याख्यान का चुम्बकीय प्रभाव पूरे अमेरिका पर पड़ा और अमेरिकावासी उनके व्यक्तित्व से अभिभूत हो गये। अमेरिकन राष्ट्र विवेकानंद की प्रशंसा से मुखरित हो उठा और हर अमेरिकावासी उनके सानिध्य के लिए उत्सुक हो उठा। न्यूयार्क से प्रकाशित हेराल्ड अखबार ने इस अवसर पर लिखा कि शिकागो धर्मसभा में विवेकानंद ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि धर्म सभा में इस प्रकार के अमुमन राष्ट्र भारत वर्ष में हमारे धर्म प्रचारकों को भेजना मूर्खता मात्र है। इस संदर्भ में वास्टन इवनिंग ट्रेंसलिस्ट में लिखा था। “ He is really a great man, noble, simple, sincere, and learned beyond comparison  with most of our scholars.”

स्वामी विवेकनंद ने धर्मसम्मत संसद में अपनी वकपटुता तथा ज्ञान से वेदांतिक ओजस्वी भाषणों से अमेरिकावासियों को भारत के प्रति प्रेम करने के लिए मजबूर कर दिया । उन्हें यह सोचने के लिए विवश कर दिया भारत भी हमारे जैसा ही एक देश है जहाँ हमारे जैसे मानव निवास करते हैं उनका धर्म, रीति रिवाज हमारे धर्म और ईश्वर जैसा ही है। 150 वर्षों से ईसाइ धर्म प्रचारक हिंदुत्व की जो निंदा फैला रहे थे उस पर रोक लगा दी और सारा पश्चिमी लोक स्वामी के मुख से हिंदुत्व का आख्यान सुन कर गद-गद हो रहा है। तब हिंदू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव को महसूस करने लगे। अमेरियत के रंग में रंगे भारतीय ने जब देखा कि यूरोप और अमेरिका भी हिंदूत्व की ऊँचाईयों को समझने लगा तो वे भी इसकी ऊँचाई  महसूस करने लगे । इस प्रकार हिंदुत्व को बोलने के लिए अंग्रेजी भाषा ईसाई धर्म एवं यूरोपिय बुद्धिवाद की छवी से जो तूफान उठा था वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे वक्ष से टकराकर लौट गया।

धर्म सभा पर अब अपना, मत प्रस्तुत करते हुए सिस्टर निवेदिता लिखती है कि “ विश्वधर्म सभा के समक्ष स्वामी के अभिभाषण के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण प्रारंभ किया तो विषय था, हिंदुओं का धार्मिक विचार किंतु जब उसका अंत किया तब हिंदु धर्म की सृष्टि हो चुकी थी।

धर्म सभा के विज्ञान विभाग के अवीन मैरध्यक्ष मिस्टर मैरीन ने लिखा कि धर्म संसद पर एवं सामान्य तौर पर अमेरिकी जनता पर जितनी प्रभाव हिंदूधर्म का पड़ा उतना अन्य किसी धर्म का नहीं। हिंदू धर्म के सबसे महत्व पूर्ण एवं विशिष्ट प्रतिनिधि थे स्वामी विवेकानंद जी जो वास्तवमें धर्म संसद में निसंदेह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावी व्यक्ति थे, सभी अवसरों पर, अन्य किसी ईसाई वक्ता की अपेक्षा अधिक सम्मान एवं सराहना मीली । कट्टर ईसाई ने भी उनके संबंध में यह कहा कि यह मनुष्यों में राजा हैं।

विवेकानंद से गहरे प्रभावित डॉ. एनी वेसेंट ने लिखा है कि, “एक प्रभावी व्यक्तित्व …. पीले एवं नारंगी वस्त्रों में सुशोभीत , शिकागो के बोझील परिवेश में भारत को सूर्य की तरह चमकने वाला सिंह सा मस्तक, अंतभेदी आँखे , संवेदंशील अओज, फूर्तिली और अप्रत्याशित गति …. स्वामी विवेकानंद की छाप कुछ इसी तरह भी मुझ पर पड़ी। लोग उन्हें योद्धा सन्यासी कहतेहैं और वे कुछ गलत नहीं कहते, क्योंकि उनकी पहली छाप सन्यासी की अपेक्षा योद्धा की अधिक थी। उनके जाति में अपने देश एवं जाति का अभिमान कूट-कूट कर भरा था। भारत का यह दूत ,उसकायह पुत्र उसे लज्जित होने देने वाला नहीं था। वह अपनी मातृभूमि का संदेश लेकर आया,उसके नाम पर बोला और इस संदेश वाहक ने अपनी शाही भूमि की गरिमा का स्मरण किया, जहाँ से वह आया था। उसकी वाणी से मुग्ध हो विशाल जन समुदाय उसके शब्दों पर कान लगाये रखता है कि कहीं एक भी अक्षर न छूट जाय।  एक भी लय भूल न जाए। एक व्यक्ति उस दिन बोल उठा, और हम उस देश की जनता के लिए मिशनरी भेजते है। उचित तो यह होगाकि वे हमारे पास अपनी मिशनरी भेजे।

विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार बिल ड्यूरेंट लिखते हैं कि वे (स्वामी जी) वर्ल्ड फेयर के उपलक्ष्य में आयोजित धर्मों के पार्लियामेंट में उपस्थित हुए और अपने महीमामंडीत व्यक्तित्व , सभी धर्मों के एकता में अपनेसंदेश एवं मानव से वही ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ उपासना है, ऐसा अपनी सरल नैतिकता के द्वारा सभी को वशीभूत कर लिया। कट्टर पादरियों ने पाया कि वे लोग एक ही-धर्म का सम्मान कर रहे है। भारत लौटकर अपने देशवाशियों के सम्मुख विवेकानंद ने ऐसे शक्ति सम्पन्न धर्म का उपदेश दिया जैसा वैदिक काल से लेकर अभी तक किसी ने उन्हें नहीं दिया था। जनसाधरण उनके भाव को किस प्रकार ग्रहण करेगा इसकी परवाह नहीं करते थे। जो सम्प्रदाय उनके विरोधी थे वे ही बाद में उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंगलैंड में भी उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंग्लैंड में भी उनके व्यक्तित्व का दूरगामी प्रभाव पड़ा। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि जब तक प्राच्य प्रवधि पाश्चात-ज्ञान का  संगम नहींहोगा तब तक मानव कल्याण संभव नहीं दिखना। वे वेदांत और विज्ञान का बिज समंवय चाहते थे। स्वामी जी जानते थे, जब तक हिंदू धर्म कि बौद्धिक एवं वैज्ञानिक पद्धति प्रस्तुत नहीं की जायगी तब तक वह पाश्चात जगत को स्वीकार नहीं हो सकती है। इसी उद्देश्य हेतु उन्होंने अपने पाश्चात शिष्यों को भारत भेजा और भारतीय शिष्यों को पाश्चात भेजा। 1897 में भारत लौटने पर उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। धीरे-धीरे हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के पूनर्जागरण और उन्नयन उनके विशेष योगदान की सर्वत्र चर्चा होने लगी । हिंदू धर्म के महान आचार्य के रूप में उनका स्वागत होने लगा। उन्होंने अपने संघ के माध्यम से वेदांत की शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप देने लगे। उनका अद्वैत संघ सांस्कृतिक उन्नयन एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण के कार्य में लगी थी। स्वामी विवेकानंद जी की देश की सबसे बड़ी देन है। स्वामी जी ने डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकास वाद का गहरा अध्ययन किया था उनका स्पष्ट मान्यता था कि डार्विन  का विकास वाद ठीक होने पर भी उसके निष्कर्ष अंतिम नहीं है। वे मानते थे की संघर्ष और प्रतिद्वंद्ता बहुधा जीव की पूर्णता में रुकावट बन जाती है। शिक्षा और उन्नती का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं  को हटाना है। इनके हट जाने पर मूल ब्र्ह्म भाव स्वयं प्रकाशित हो जाता है। आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में जीतनी बाधायें आति है उन्हें शिक्षा, दीक्षा,ध्यान, धारणा के द्वारा दुर किया जा सकता है। स्वामी अद्वैत वादी थे और उन पर शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का उनके ऊपर गहरा प्रभाव था। स्वामी जी विश्व के सभी धर्मों और दर्शनों को अद्वैत वाद की ओर झुका मानते थे अपने इस समंवयकारी दृष्टिकोण के कारण वे पूर्ण रूप से अद्वैतवादी माने जातेहै।

स्वामी जी का लक्ष्य मानव को विशेष कर आधुनिक भारतीय मानव को कर्म का संदेश प्रदान करना था। इसलिए उनका संदेश था उठो साहसी बनो, विर्यवान बनो। सब उत्तरदायित्व अपने कंधे पर ले लो। यह याद रखो की तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे ही अंदर विद्यमान है अत्येव इस शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो। और अपने हाथों अपनाभविष्य गढ़ डालो। स्वामी मनुष्य को श्रेष्ठतम अवस्था तक पहुँचाने के लिए आश्रम व्यवस्था को उच्चतम बताते हैं। समस्त मानव जाति का और समस्त धर्मों का धर्म-लक्ष्य एक ही है। और वह है भगवान से पूर्ण मिलन इसलिए वे कहतेथे कि हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है उसका चिंतन करो प्रेम ही मानव जीवन का एक सर्वोच्च्य एक मात्र प्रयोजन है।

स्वामी जी के विचार में पतित से पतित व्यक्ति के सुधार की पूरी संभावना है तुम बाधाओं को हटा दो तो ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाएग। हमारा राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। वर्तमान समय में तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाओ और गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाओ की आलस्य से बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। उन्हें यथार्थ अवस्था का परिचय कराओ और कहो भाइयों सब कोई उठो। जागो। अब और कितना सोओगे! कि जाओ उन्हें अपने अवस्था सुधारने की सलाह दो और शास्त्रों की बातों को सरलता पूर्वक समझाते हुए उदात्त सत्त्वों का ज्ञान कराओं और उनके मन में यह बात जमा दो की उनका भी धर्म पर समान अधिकार है। सभी को, चांडाल तक को।

स्वामी जी कहते हैं कि सदियों से ऊँची जाति वाले उनकी सारी शक्तियों को विनष्ट कर दिया है। ये स्त्रियों को बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे। वे प्रत्येक को माँ ,बहन के रूप में पूजते थे। उन्होंने उन्हें गुलामी से छुटकारा दिलाया, परदे से बाहर किया,सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की प्रेरणा दी तथा उनके  शिक्षा ग्रहण करने पर बहुत जोर दिया। वे कहते थे कि उन्नतशील राष्ट्रों ने स्त्रियों को समुचित सम्मान देकर ही महानता प्राप्त  की है। जो राष्ट्र स्त्रियों का आदर नहीं करते वे कभी बड़े नहीं हो सकते, न ही हो पाये और न कभी बड़े हो पायेंगे। वे स्त्रियों को लौकिक तथा त्याग की शिक्षा देकर सीता बनाने का प्रयत्न करना चाहते थे ताकी वे अपना रक्षा वे स्वयं कर सके। स्वामी विवेकानंद दलितों और गरीबों को देखकर बड़े दुखी होते थे। उनको ऊँचा उठाने के लिए और सहायता देने के लिए अपने देश वासियों तथा अन्य मिश्नरियों को प्रेरणा दी। “ आओ हम में से प्रत्येक व्यक्ति दिन और रात उन करोड़ों पद दलित भारतीयों के लिए प्रार्थना करे जो गरीब, पुरोहितों के छल और नाना अत्याचारों द्वारा जकड़े हुए हैं उन्हीं के लिए दिन रात प्रार्थना करो।

वे हिंदू धर्म को विश्व धर्म मानते थे। इसका एक कारण यह है कि हिंदू धर्म में विभिन्न मतों,संप्रदायों और साधना पद्धतियों के लिए समान आदर भाव है। विश्वधर्म सभा में उन्होंने इस संदर्भ में कहा था कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायि होनेमें गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सर्वभौमिकता, दोनों की शिक्षा दी। हमलोग सर्वधर्मों के प्रति सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरण समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। उन्होंने वेदांतिक शिक्षा का प्रचार कर रूढ़ीवादी विचारों को समाप्त किया और सभी धार्मिक विचारों को तर्क की कसौटी पर तौला और हिंदू धर्म को वैज्ञानिक एवं तर्क युक्त सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ा किया। वे वैक्तिकता एवं समाजिकता दोनों के समर्थक थे।

विवेकानंद का शिक्षा दर्शन :- वे मानते थे कि सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण ही है। सारे प्रशिक्षणों का उद्देश्य मनुष्य का विकास करना ही है। जिस अभ्यास से मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रवाह और प्रकाश सयंमित होकर फलदायी बन सके उसी का नाम है शिक्षा। स्वामी जी का मत है हमारे देश को जिस चीज की आवश्यकता है वह है लोहे की मांस-पेशियाँ और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचण्ड इच्छा शक्ति जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रहस्यों को भेद सके और जिसे पाने के लिए समुद्र तल में ही क्यों न जाना पड़े, साक्षात मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते हैं। हम मनुष्य बनाने वाला सिद्धांत ही चाहते हैं। हम सभी शास्त्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते हैं।

  • विवेकानंद का जन्म कब हुआ
  • उनके पिता का नाम
  • उनके माता का नाम
  • किस प्रदेश में जन्म लिया
  • किस शहर में उन्होंने धर्म संसद में भाग लिया
  • उनके गुरु का नाम
  • रामकृष्ण परम्हंस किसके भक्त थे
  • विवेकानंद पर किस दर्शन का प्रभाव था
  • विवेकानंद ने किस मठ की स्थापना की
  • शिकागो धर्मसभा किस सन में हुआ
  • विवेकानंद का स्वर्गवास कब हुआ
  • विवेकानंद मनुष्य में किसका वास मानते हैं
  • शिक्षा दर्शन के माध्यम से मनुष्य का किस प्रकार का विकास चाहते थे।

उनके शिक्षा दर्शन का मूल उद्देश्य मानव जीवन का निर्माण करना है। शिक्षा वह जो मानव जीवन का निर्माण कर उसे फल सिद्धि के लिए सक्षम बनये और अंत

 

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