Dangers of Wi-Fi

1. Contributes to the Development of Insomnia

Have you ever felt more awake after using Wi-Fi or even struggled to sleep through the night? Reports of these phenomena have been frequent and even prompted a study in 2007 that evaluated low-frequency modulation from cell phones and its impact on sleep. Participants were exposed to the electromagnetic signals from real phones or no signal from fake phones. Those exposed to the electromagnetic radiation had a significantly more difficult time falling asleep and changes in brainwave patterns were observed.

It’s been suggested that sleeping near a phone, in a home with Wi-Fi, or in an apartment building with many Wi-Fi signals can create chronic sleep problems as the constant bombardment of Wi-Fi pollution interferes with falling asleep and sleep patterns. For many, sleep deprivation is just the start for larger problems. The development of depression and hypertension have also been linked to inadequate sleep.

2. Damaging to Childhood Development

Exposure to non-thermal radio frequency radiation from Wi-Fi and cellular phones can disrupt normal cellular development, especially fetal development. A 2004 animal study linked exposure to delayed kidney development. These findings were supported by a 2009 Austrian study. In fact, the disruption of protein synthesis is so severe that authors specifically noted, “this cell property is especially pronounced in growing tissues, that is, in children and youth. Consequently, these population groups would be more susceptible than average to the described effects.” In short, bathing the developmentally young in Wi-Fi increases their risk of developmental issues.

3. Affects Cell Growth

When a group of Danish ninth graders experienced difficulty concentrating after sleeping with their cell phones by their head, they performed an experiment to test the effect of wireless Wi-Fi routers on garden cress. One set of plants was grown in a room free of wireless radiation; the other group grew next to two routers that released the same amount of radiation as a cell phone. The results? The plants nearest the radiation didn’t grow.

4. Derails Brain Function

Just as the Danish high schoolers noticed problems with concentration, scientists have begun to look at the impact of 4G radiation on brain function. Using MRI technology, research performed just last year found that persons exposed to 4G radiation had several areas of reduced brain activity.

5. Reduces Brain Activity in Females

A group of 30 healthy volunteers, 15 men and 15 women, were given a simple memory test. First, the entire group was tested without any exposure to Wi-Fi radiation — no problem. Then, they were exposed to 2.4 GHz Wi-Fi from a wireless access point for about 45 minutes. During that portion of the testing, brain activity was measured and the women had a noticeable change in brain activity and energy levels.  Sorry ladies! But guys, don’t get too comfortable…

6. Neutralizes Sperm

…Because we’ve known for a long time that the heat generated by laptops kills sperm. Well, now it turns out that heat isn’t the only threat to a man’s virility. Research has found exposure to Wi-Fi frequencies reduce sperm movement and cause DNA fragmentation.Both human and animal testing has confirmed that exposure negatively affects sperm.

7. May Impact Fertility

And, it’s not just sperm. The results of an animal study suggest that some wireless frequencies may prevent egg implantation. During the study, mice exposed 2 hours a day for 45 days had significantly increased oxidative stress levels. The cellular damage and impact on DNA structure from exposure suggest a strong possibility of abnormal pregnancy or failure of the egg to implant.

The Karolinska Institute in Sweden released a warning in 2011, stating:

  • “Pregnant women are cautioned to avoid using wireless devices themselves and distance themselves from other users,”
  • “Current US [and Canada]…standards for radio frequency and microwave radiation from wireless technology are entirely inadequate,” and
  • “Safety standards also ignore the developing fetus…”

8. Provokes Cardiac Stress

9. Linked to Cancer?

This is extremely controversial but we can’t ignore that plenty of animal models indicate that exposure to electromagnetic radiation increases the risk of tumor development. While human studies are rare, reports and case studies abound. One such case involves a young 21-year-old woman who developed breast cancer. What makes this case unique was that her family did not have a predisposition to breast cancer… and she developed the tumor right on the spot she carried her cell phone in her bra.

स्वामी विवेकानंद का कृतित्व एवं व्यक्तित्व

स्वामी विवेकानंद का कृतित्व एवं व्यक्तित्व

इस भारत भूमि में ऐसे ऐसे कर्म योद्धाओं का अवतरण देखा है जिन्होंने अपने समय एवं समाज के साथ एक बड़ा हस्तक्षेप ही नहीं किया; बल्कि पूरे विश्व में अपने विचार के माध्यम से विचारों का ऐसा पूंज फैलाया जिन्होंने समाज में बड़े परिवर्तन की एक बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। भारतीय परंपरा में यह गूँजता ही रहा है कि यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत्।

अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाम साधूनां विनाशाय च दुस्कृताम्।

धर्म संस्थापनार्थाय सम्भावमि युगे-युगे॥

अर्थात जब-जब धर्म की हानि हुई है कोई न कोई महापुरुष राम,कृष्ण ईसामसीह, मोहम्म्द साहब, गुरुनानक आदि

 

जन्म लेकर इस पृथ्वी पर न केवल समरसता फैलाई है, बल्कि समाज की समस्त कुरुतियों को बदलने के लिए भागीरथ प्रयत्न किया है। इसी में एक विवेकानंद हैं जिन्होंने अल्पायु में अपने विचारों के चकाचौंध से न केवल भारत; बल्कि पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया।

स्वामी विवेकानंद ने वेदांत के द्वारा ऐसे नये मानव का निर्माण करना चाहते थे जो पूरे विश्व में शांति, सदभाव, विश्व बंधुत्व की भावना का प्रचार – प्रसार कर सके। उनके हृदय में राष्ट्रनिर्माण की भावना में विश्व निर्माण की भावना भी समाहित है। स्वामी विवेकानंद के चिंतन में जीवन एवं जगत के सभी पहलू के अंकुर मिलते हैं। उनमें एक तरफ मन के परिवर्तन की संकल्पना है तथा आत्म उत्थान की भावना है तो दूसरी तरफ पूरे विश्व के समाज सुधार की प्रेरणा और नयी सृष्टि का संकल्प भी है। ऐसे स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के प्रसिद्ध दत्त परिवार में 12 जनवरी 1863 ई. में हुआ और मृत्यु 4 जुलाई, 1902 को हुआ। इनका वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ था तथा पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था। जो बंगाल के सुप्रसिद्ध वकील थे। इनकी माता श्रीमती भुनेश्वरी देवी धर्म, परायण, साध्वी, बुद्धिमती एवं साहसी महीला थीं। इनके बाबा श्री दुर्गाचरण दत्त बहुत ही सज्जन, नेक और अच्छे इंसान थे, जो फारसी, संस्कृत एवं कानून के बहुत बड़े ज्ञाता थे। स्वामी जी पर अपने माता-पिता एवं दादा का बहुत प्रभाव था। कहा जाता है कि प्रारंभ से ही महापुरुषों के लक्षण दिखने लगते हैं । ‘होनहार विरवान के होत चिकने पात’,बचपन से ही विवेकानंद को पूजा-पाठ एवं ईश्वर आराधना में बड़ा मन लगता था।आराधना में वे इतनी तल्लीन हो जाते थे कि भौतिक जगत से पूरी तरह कट जाते थे।

इनके पिता की बड़ी लालसा थी कि उनका बेटा वकील बने और उनकी परंपरा को आगे बढाये। उनके पिता सहृदय गृहस्थ और एक सामाजिक प्राणी थे और अपने पुत्र में इन्हीं का विकास देखना चाहते थे,; लेकिन शायद परमात्मा  को यह मंजूर नहीं था। इनकी शिक्षा –दीक्षा घर पर ही हुई; क्योंकि प्राथमिक शिक्षा अपरिहार्य कारण से नियमित   पाठशाला में नहीं हो सकी। इनके पिता ने इनके पठन-पाठन की घर में व्यवस्था कर दी। सात वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने संपूर्ण व्याकरण कंठस्थ कर लिए तथा रामायण एवं महाभारत के लंबे-लंबे प्रसंगों के अपने स्मृति में बसा लिया।  सात वर्ष की आयु में ही कॉलेज में भरती हो गये । इन्होंने पढने के साथ-साथ खेल-कूद , व्यायाम, संगीत,नाटक आदि विषयों में रूचि ली और सभी में उनकी विशेष दक्षता समय-समय पर प्रकट होती रही। सोलह वर्ष की आयु में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की और प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया । बाद में एसेम्बली इंस्ट्रीक्शन में पढने गये। अध्ययन में उनकी प्रतिभा सदैव सर्वोच्च रही।  उनकी इस प्रतिभा को देखकर ड्ब्लू डब्लू हेस्टे ने एक बार कहा कि…

“I have travelled far and wide but I have never come across a lad of his talent and possibilities. He is bound to make his mark in life”

प्राचार्य विलियम हेस्टी की प्रेरणा से रामकृष्ण परंहस के साथ 1881 में दक्षिणेश्वर मंदिर कलकता में उनकी भेंट हुई, जो इनकी जीवनधारा को बदलने में अहम योगदान दिया। रामकृष्ण परंहस उन्हें देखते ही पहचान लिया और कहा “मैं जानता हूँ आप स्वयं नारायण के अवतार है जिन्होंने मानवता का उद्धार करने के लिए इस पृथ्वी पर जन्म लिया है और यही से उन दोनों में गुरु शिष्य का संबंध विकसित हुआ। नरेंद्र ने पहला सबाल किया, क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है? रामकृष्ण ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया।

“God can be realized one can see and talk to him as I am doing with you But who cares to do so.”

कुछ समय बाद नरेंद्र के पिता का देहांत हो गया और गृह संचालन की पूरी जिम्मेदारी उनपर आ गयी, लेकिन वे घबराये नहीं। नरेंद्र की ईश्वर के प्रति आस्था बढती गयी। एक दिन उनको प्रतीत हुआ कि ईश्वर का भी अस्तित्व है क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही कठिनाईयों का साहस के साथ सामना किया जा सकता है। लगातार रामकृष्ण के सानिध्य में धीरे-धीरे गृहस्थ से सन्यांसी बना दिया। सन 1886 में रामकृष्ण के मृत्यु के पश्चात नरेंद्र ने उनकी शिक्षा का प्रचार –प्रसार अपने जीवन का मूल मंत्र बनाया। नरेंद्र आरंभ से जिज्ञासु थे वे हर बात में सत्य का अनुसंधान करने लगते थे। अपने छात्र जीवन से ही उनकी रूचि शास्त्रों, साधु संतों और धर्म आलोचना आदि में अधिक थी। अपने इसी स्वभाव के कारण विश्व उनके लिए एक जिज्ञासा का विषय बनता चला गया और वे निरंतर जीवन पर्यन्त सत्य की खोज में लगे रहे। जीवन के इस सोच के विकसित होने के कारण उन्होंने यह संकल्प व्यक्त किया कि हमें जीवन की प्राप्ति तभी हो पाती है जब पूरी लगन, निष्ठा और समर्पण के साथ किसी के लक्ष्य के लिए लगते हैं। उन्होंने यह तय कर लिया था कि जीवन की मुक्ति सन्यास में है इसलिए एक जगह उन्होंने कहा है कि “मैं समझता हूँ कि सन्यास ही मानव जीवन का सर्वोच्य आदर्श होना चाहिए। नित्य परिवर्तनशील अनित्य संसार के पीछे सुख की कामना के पीछे दौड़ने की अपेक्षा उस अपरिवर्तनशील ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ को पाने के लिए प्राणप्रण से कोशिश करना ही सौ गुणा श्रेष्ठ है।“ (विवेकानंद साहित्य खण्ड -7, पृष्ठ -234)

नरेंद्र के स्वभाव को देखते हुए रामकृष्ण ने एक बार कहा था कि “जिस दिन नरेंद्र का जीवन दु:खों, काँटों और विपतियों से सन्निकट होगा उसके चरित्र का अभिमान विचलित होकर अनंत करूणा में परिवर्तित हो जाएगा। उसके अहम जो दृढ़ विश्वास है वह तमाम निराश आत्माओं में उस विश्वास और आस्था को उत्पन्न करने का साधन बनेगा, जिसे उन्होंने थोड़े समय में खो दिया है। शक्तिशाली आत्मनियंत्रण के उपर आधारित उनके व्यवहार की जो स्वच्छंदता है वो दूसरे की आँख में आत्मा की सच्ची स्वतंत्रता बन कर चमकेगी। (समकालीन भारतीय दर्शन, डॉ. श्रीमती लक्ष्मी सकसेना,पृष्ठ -90)

1886 ई. में श्री रामकृष्ण परम्हंस का मृत्यु हुआ। मृत्यु के पूर्व उन्होंने नरेंद्र का स्पर्श करते हुए अपना सर्वस्व उतराधिकार उन्हें दिया और कहा कि बेटा आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर बन गया। स्पर्श के साथ ही नरेंद्र को समाधि के आनंद की अनुभूति हुई। अब नरेंद्र नरेंद्र न रह कर स्वामी विवेकानंद हो गये और उनके जीवन में हमें ज्ञान, भक्ति, कर्म और वैराग्य का अपूर्व सम्न्वय मिलने लगा। 1888 ई. में स्वामी विवेकानंद जी हाथ में कमंडल लिए सन्यासी वेशभूषा में उतर भारत के प्रमुख स्थानों जैसे-वाराणसी, हरिद्वार , वृंदावन, आगरा, अयोध्या गये। बाद में हिमालय कुछ समय रहने के बाद बिहार के प्रमुख नगरों, राजस्थान में जयपुर,अलवर्। गुजरात में अहमदबाद, भुज,सोमनाथ, द्वारका,पोरबंदर, माहवीर, पाली टाना, काठियावाड़, महाराष्ट्र में बम्बई ,पुणे, आंध्रप्रदेश में कोचिन, त्रिवेंद्रम, तमिलनाडु में मदुरै एवं कन्याकुमारी की यात्रा की। इस यात्रा भ्रमण से विवेकानंन्द के अनुभव संसार में कई अनुभूतियाँ जाग्रत हुए। उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों के रीति-रिवाज, आचार-विचार आदि का परिचय पाया। इस परिचय से स्वामी विवेकानंद को भारत के बारे में जो ज्ञान प्राप्त हुआ वो साधारण न था उसे उन्हें भारत की जनता के निर्धंता,अशिक्षा तथा कुसंस्कारों आदि का पता लगा।

हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा में स्वामी जी ने देखा की धर्म, देश भारत वर्ष दुभिक्ष, महामारी, दु:ख, रोग, शोक से जर्जरित है। धनिक लोग गरीबों का चूसकर बिलास की पिपासा को तृप्त कर रहे हैं। आहार से भुखे –प्यासे  लोग भूमंडल पर युग-युगांतर की निराशा लिए अन्न के लिए तरस रहें है। शिक्षा के अभाव के कारण पुरोहित वर्ग धर्म से भय्भीत कर रहे हैं। धर्म के बारे में अज्ञान होने के कारण भारतीयों के हृदय में न आशा है, न बल है, इन सबकों देखकर  स्वामी का हृदय द्रवीभूत हो गया। और उन्होंने कन्याकुमारी के पास शीलासन पर उपर्युक्त बुराई को दूर करने का संकल्प लिया।

स्वामी जी का विश्वास था बुभूषितों को शिक्षा नहीं दी जा सकती और उसके बिना धर्म की प्राप्ति नहीं हो  सकती। रामकृष्ण कि मौलिक शिक्षा थी कि सभी धर्म सत्य है, और ईश्वर की उपलब्धि की उपाय मात्र है।

स्वामी विवेकानंद के द्वारा की यही सम्पति थी। उनकी पीठ पर व्यातीत युग-युग की संस्कृति का वरदहस्त था।

विश्व संसद और पाश्चात देशों की यात्रा

31 मई 1893 ई. को स्वामी विवेकानंद अपने गुरू की लोक कल्याणी इच्छा को लेकर भारत से अमेरिका के तरफ प्रस्थान किया और लंका, सिंगापुर,हांगकांग, कैण्टन और नागासाकी होते हुए जुलाई मध्य तक शिकागों पहुँच गये। इस यात्रा में स्वामी जी ने एशिया की सांस्कृतिक एकता और उसमें भारतीय अनुदान की अनुपम झाँकी प्रस्तुत की, चीन में उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की अमूल्य पाण्डुलिपियाँ मिली, जिनका उन्होंने अध्ययन किया । जापान में उन्हें पवित्र सूत्रों का श्लोक मिला। इन सब वस्तुओं को देखकर उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि एशिया के आध्यात्मिक एकता में भारत का कितना महान योगदान रहा है। अमेरिका पहुँचकर अमेरिका की शक्ति , धन, सृजनात्मक प्रतिभा एवं समृद्धि को देखकर वे आश्चर्य चकित हो उठे। जिस उद्देश्य से वे अमेरिका गये, उस धर्म सभा में नियमानुसार उन्हें प्रवेश नहीं मिल पा रहा था, लेकिन प्रोफेसर जे.एय.राइट के सहयोग से अंतत: उन्हें धर्म संसद में प्रवेश मिला। 11 सितंवर सोमवार 1893 में कोलनगर हॉल में धर्म संवाद प्रारंभ हुआ। भारत से आये प्रतिनिधियों में ‘ब्रह्म समाज’ के प्रताप चंद्र मजुमदार और नागरकर गाँधी ‘जैन समाज’ के वीर चंद, थियोसोफिकल के ओर से एनी बेसेंट एवं चक्रवर्ती तथा स्वामी विवेकानंद आदि हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

विवेकानंद ने अपने वक्तव्य की शुरुआत करते हुए कहा कि अमेरिकावासियों भाईयों एवं बहनों । उनके इस संबोधन को सुनकर पूरी सभा दो मिनट तक करतल ध्वनि करता रहा। स्वामी जी ने अपना भाषण हिंदू धर्म से आरंभ किया। उन्होंने हिंदू धर्म को सभी धर्मों का जनक बताया; क्योंकि इसी धर्म ने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया। अपने मत को पुष्टि के लिए उन्होंने गीता के पदों के उद्धरणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म में साम्प्रादायिकता , संकीर्णता, धर्मांधता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार स्वामी जी ने इस महान आध्यात्मिक धर्म महासभा में वेदांत के विजय का शंखनाद किया। उन्होंने अमेरिका इंग्लैंड आदि देशों को भारतीय दर्शन के मौलिक सिद्धांत की जानकारी दी। यह विश्व के लिए एक नया संदेश था। इस कारण अंधकार में भटकते हुए मनुष्य को एक अभिनव ज्ञान का मार्ग प्रशस्त हुआ।

स्वामी जी ने अमेरिका निवासियों को हिंदुओं के बारे में बताया कि हिंदू लोग तुम्हें पापी कभी नहीं कहते । तुम सब अमृत की संतान हो। इस पृथ्वी पर पाप नाम की कोई चीज नहीं है। यदि कोई पाप है तो वह है मनुष्य को पापी कहना। तुम सर्वशक्तिमान आत्मा ही शुद्ध मुक्त महान है। उठो, जागो और स्वंय को प्रकट करने की चेष्टा करो” (डॉ. सत्येंद्रनाथ मजुमदार, विवेकानंद चरित्र, पृष्ठ- 110) उनको इस मनोवैज्ञानिक व्याख्यान का चुम्बकीय प्रभाव पूरे अमेरिका पर पड़ा और अमेरिकावासी उनके व्यक्तित्व से अभिभूत हो गये। अमेरिकन राष्ट्र विवेकानंद की प्रशंसा से मुखरित हो उठा और हर अमेरिकावासी उनके सानिध्य के लिए उत्सुक हो उठा। न्यूयार्क से प्रकाशित हेराल्ड अखबार ने इस अवसर पर लिखा कि शिकागो धर्मसभा में विवेकानंद ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि धर्म सभा में इस प्रकार के समुन्नत राष्ट्र भारत वर्ष में हमारे धर्म प्रचारकों को भेजना मूर्खता मात्र है”। इस संदर्भ में वास्टन इवनिंग ट्रेंसलिस्ट में लिखा था। “ He is really a great man, noble, simple, sincere, and learned beyond comparison  with most of our scholars.”

स्वामी विवेकनंद ने धर्मसम्मत संसद में अपनी वाकपटुता तथा ज्ञान से वेदांतिक ओजस्वी भाषणों से अमेरिकावासियों को भारत के प्रति प्रेम करने के लिए मजबूर कर दिया । उन्हें यह सोचने के लिए विवश कर दिया भारत भी हमारे जैसा ही एक देश है जहाँ हमारे जैसे मानव निवास करते हैं उनका धर्म, रीति रिवाज हमारे धर्म और ईश्वर जैसा ही है। 150 वर्षों से ईसाइ धर्म प्रचारक हिंदुत्व की जो निंदा फैला रहे थे उस पर रोक लगा दी और सारा पश्चिमी लोक स्वामी के मुख से हिंदुत्व का आख्यान सुन कर गद-गद हो रहा है। तब हिंदू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव को महसूस करने लगे। अंग्रेजियत के रंग में रंगे भारतीय ने जब देखा कि यूरोप और अमेरिका भी हिंदूत्व की ऊँचाईयों को समझने लगा तो वे भी इसकी ऊँचाई  महसूस करने लगे । इस प्रकार हिंदुत्व को बोलने के लिए अंग्रेजी भाषा ईसाई धर्म एवं यूरोपीय बुद्धिवाद की छवि से जो तूफान उठा था वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे वक्ष से टकराकर लौट गया।

धर्म सभा पर अब अपना, मत प्रस्तुत करते हुए सिस्टर निवेदिता लिखती है कि “ विश्वधर्म सभा के समक्ष स्वामी के अभिभाषण के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण प्रारंभ किया तो विषय था, हिंदुओं का धार्मिक विचार किंतु जब उसका अंत किया तब हिंदु धर्म की सृष्टि हो चुकी थी”।

धर्म सभा के विज्ञान विभाग के अध्यक्ष मिस्टर मैरीन ने लिखा कि धर्म संसद पर एवं सामान्य तौर पर अमेरिकी जनता पर जितनी प्रभाव हिंदूधर्म का पड़ा उतना अन्य किसी धर्म का नहीं। हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट प्रतिनिधि थे स्वामी विवेकानंद जी जो वास्तवमें धर्म संसद में निसंदेह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावी व्यक्ति थे, सभी अवसरों पर, अन्य किसी ईसाई वक्ता की अपेक्षा अधिक सम्मान एवं सराहना मिली । कट्टर ईसाई ने भी उनके संबंध में यह कहा कि यह मनुष्यों में राजा हैं।

विवेकानंद से गहरे प्रभावित डॉ. एनी वेसेंट ने लिखा है कि, “एक प्रभावी व्यक्तित्व …. पीले एवं नारंगी वस्त्रों में सुशोभित, शिकागो के बोझिल परिवेश में भारत को सूर्य की तरह चमकने वाला सिंह सा मस्तक, अंतभेदी आँखे, संवेदंशील ओज, फुर्तिली और अप्रत्याशित गति …. स्वामी विवेकानंद की छाप, कुछ इसी तरह भी मुझ पर पड़ी। लोग उन्हें योद्धा सन्यासी कहतेहैं और वे कुछ गलत नहीं कहते, क्योंकि उनकी पहली छाप सन्यासी की अपेक्षा योद्धा की अधिक थी। उनके जाति में अपने देश एवं जाति का अभिमान कूट-कूट कर भरा था। भारत का यह दूत ,उसकायह पुत्र उसे लज्जित होने देने वाला नहीं था। वह अपनी मातृभूमि का संदेश लेकर आया,उसके नाम पर बोला और इस संदेश वाहक ने अपनी शाही भूमि की गरिमा का स्मरण किया, जहाँ से वह आया था। उसकी वाणी से मुग्ध हो विशाल जन समुदाय उसके शब्दों पर कान लगाये रखता है कि कहीं एक भी अक्षर न छूट जाय।  एक भी लय भूल न जाए। एक व्यक्ति उस दिन बोल उठा, और हम उस देश की जनता के लिए मिशनरी भेजते है। उचित तो यह होगाकि वे हमारे पास अपनी मिशनरी भेजे।

विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार बिल ड्यूरेंट लिखते हैं कि वे (स्वामी जी) वर्ल्ड फेयर के उपलक्ष्य में आयोजित धर्मों के पार्लियामेंट में उपस्थित हुए और अपने महिमामंडित व्यक्तित्व , सभी धर्मों के एकता में अपनेसंदेश एवं मानव से वही ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ उपासना है, ऐसा अपनी सरल नैतिकता के द्वारा सभी को वशीभूत कर लिया। कट्टर पादरियों ने पाया कि वे लोग एक ही-धर्म का सम्मान कर रहे है। भारत लौटकर अपने देशवाशियों के सम्मुख विवेकानंद ने ऐसे शक्ति सम्पन्न धर्म का उपदेश दिया जैसा वैदिक काल से लेकर अभी तक किसी ने उन्हें नहीं दिया था। जनसाधरण उनके भाव को किस प्रकार ग्रहण करेगा इसकी परवाह नहीं करते थे। जो सम्प्रदाय उनके विरोधी थे वे ही बाद में उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंगलैंड में भी उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंग्लैंड में भी उनके व्यक्तित्व का दूरगामी प्रभाव पड़ा। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि जब तक प्राच्य प्रवधि पाश्चात-ज्ञान का  संगम नहींहोगा तब तक मानव कल्याण संभव नहीं दिखना। वे वेदांत और विज्ञान का बीच समंवय चाहते थे। स्वामी जी जानते थे, जब तक हिंदू धर्म कि बौद्धिक एवं वैज्ञानिक पद्धति प्रस्तुत नहीं की जायगी तब तक वह पाश्चात जगत को स्वीकार नहीं हो सकती है। इसी उद्देश्य हेतु उन्होंने अपने पाश्चात शिष्यों को भारत भेजा और भारतीय शिष्यों को पाश्चात भेजा। 1897 में भारत लौटने पर उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। धीरे-धीरे हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण और उन्नयन उनके विशेष योगदान की सर्वत्र चर्चा होने लगी । हिंदू धर्म के महान आचार्य के रूप में उनका स्वागत होने लगा। उन्होंने अपने संघ के माध्यम से वेदांत की शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप देने लगे। उनका अद्वैत संघ सांस्कृतिक उन्नयन एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण के कार्य में लगी थी। स्वामी विवेकानंद जी की देश की यही सबसे बड़ी देन है। स्वामी जी ने डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकास वाद का गहरा अध्ययन किया था उनका स्पष्ट मान्यता था कि डार्विन  का विकास वाद ठीक होने पर भी उसके निष्कर्ष अंतिम नहीं है। वे मानते थे की संघर्ष और प्रतिद्वंद्ता बहुधा जीव की पूर्णता में रुकावट बन जाती है। शिक्षा और उन्नति का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं  को हटाना है। इनके हट जाने पर मूल ब्रह्म भाव स्वयं प्रकाशित हो जाता है। आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में जितनी बाधायें आती है उन्हें शिक्षा, दीक्षा,ध्यान, धारणा के द्वारा दूर किया जा सकता है। स्वामी अद्वैत वादी थे और उन पर शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का उनके ऊपर गहरा प्रभाव था। स्वामी जी विश्व के सभी धर्मों और दर्शनों को अद्वैत वाद की ओर झुका मानते थे अपने इस समंवयकारी दृष्टिकोण के कारण वे पूर्ण रूप से अद्वैतवादी माने जातेहै।

स्वामी जी का लक्ष्य मानव को विशेष कर आधुनिक भारतीय मानव को कर्म का संदेश प्रदान करना था। इसलिए उनका संदेश था उठो साहसी बनो, वीर्यवान बनो। सब उत्तरदायित्व अपने कंधे पर ले लो। यह याद रखो की तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे ही अंदर विद्यमान है अतएव इस शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने हाथों अपनाभविष्य गढ़ डालो। स्वामी मनुष्य को श्रेष्ठतम अवस्था तक पहुँचाने के लिए आश्रम व्यवस्था को उच्चतम बताते हैं। समस्त मानव जाति का और समस्त धर्मों का धर्म-लक्ष्य एक ही है और वह है भगवान से पूर्ण मिलन। इसलिए वे कहते थे कि हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है उसका चिंतन करो प्रेम ही मानव जीवन का सर्वोच्च्य एक मात्र प्रयोजन है।

स्वामी जी के विचार में पतित से पतित व्यक्ति के सुधार की पूरी संभावना है तुम बाधाओं को हटा दो तो ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाएग। हमारा राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। वर्तमान समय में तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाओ और गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाओ की आलस्य से बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। उन्हें यथार्थ अवस्था का परिचय कराओ और कहो भाइयों सब कोई उठो। जागो। अब और कितना सोओगे!  जाओ उन्हें अपने अवस्था सुधारने की सलाह दो और शास्त्रों की बातों को सरलता पूर्वक समझाते हुए उदात्त सत्त्वों का ज्ञान कराओं और उनके मन में यह बात जमा दो कि उनका भी धर्म पर समान अधिकार है। सभी को, चांडाल तक को।

स्वामी जी कहते हैं कि सदियों से ऊँची जाति वाले उनकी सारी शक्तियों को विनष्ट कर दिया है। ये स्त्रियों को बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे। वे प्रत्येक को माँ ,बहन के रूप में पूजते थे। उन्होंने उन्हें गुलामी से छुटकारा दिलाया, परदे से बाहर किया,सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की प्रेरणा दी तथा उनके  शिक्षा ग्रहण करने पर बहुत जोर दिया। वे कहते थे कि उन्नतशील राष्ट्रों ने स्त्रियों को समुचित सम्मान देकर ही महानता प्राप्त  की है। जो राष्ट्र स्त्रियों का आदर नहीं करते वे कभी बड़े नहीं हो सकते, न ही हो पाये और न कभी बड़े हो पायेंगे। वे स्त्रियों को लौकिक तथा त्याग की शिक्षा देकर सीता बनाने का प्रयत्न करना चाहते थे ताकि वे अपना रक्षा वे स्वयं कर सके। स्वामी विवेकानंद दलितों और गरीबों को देखकर बड़े दुखी होते थे। उनको ऊँचा उठाने के लिए और सहायता देने के लिए अपने देश वासियों तथा अन्य मिश्नरियों को प्रेरणा दी। “ आओ हम में से प्रत्येक व्यक्ति दिन और रात उन करोड़ों पद दलित भारतीयों के लिए प्रार्थना करे जो गरीब, पुरोहितों के छल और नाना अत्याचारों द्वारा जकड़े हुए हैं उन्हीं के लिए दिन रात प्रार्थना करो।

वे हिंदू धर्म को विश्व धर्म मानते थे। इसका एक कारण यह है कि हिंदू धर्म में विभिन्न मतों,संप्रदायों और साधना पद्धतियों के लिए समान आदर भाव है। विश्वधर्म सभा में उन्होंने इस संदर्भ में कहा था कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सर्वभौमिकता, दोनों की शिक्षा दी। हमलोग सर्वधर्मों के प्रति सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरण समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। उन्होंने वेदांतिक शिक्षा का प्रचार कर रूढ़िवादी विचारों को समाप्त किया और सभी धार्मिक विचारों को तर्क की कसौटी पर तौला और हिंदू धर्म को वैज्ञानिक एवं तर्क युक्त सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ा किया। वे वैक्तिकता एवं समाजिकता दोनों के समर्थक थे।

विवेकानंद का शिक्षा दर्शन

वे मानते थे कि सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण ही है। सारे प्रशिक्षणों का उद्देश्य मनुष्य का विकास करना ही है। जिस अभ्यास से मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रवाह और प्रकाश सयंमित होकर फलदायी बन सके उसी का नाम है शिक्षा। स्वामी जी का मत है हमारे देश को जिस चीज की आवश्यकता है वह है लोहे की मांस-पेशियाँ और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचण्ड इच्छा शक्ति जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रहस्यों को भेद सके और जिसे पाने के लिए समुद्र तल में ही क्यों न जाना पड़े, साक्षात मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते हैं। हम मनुष्य बनाने वाला सिद्धांत ही चाहते हैं। हम सभी शास्त्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते हैं। प्रत्येक देश की कुछ विशेष सांस्कृतिक विशेषता होती है। जिसके आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारण के लिए एक आधार मिलता है। भारतीय संस्कृति का आधार आध्यात्म है। स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक पाठ्यक्रम का आधार अध्ययन एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण दोनों है। ये शिक्षा के द्वारा मनुष्य को लौकिक और पार लौकिक दोनों जीवनों के लिए तैयार करना चाहते थे। इसलिए स्वामी जी ने भौतिक तथा अध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के विषयों पर जोर दिया है। स्वामी जी ने भारतवासियों से कहा की वेदांत के समान महान तत्त्व केवल अरण्यों या पर्वतों की गुफाओं में सीमित नहीं रहेंगे वरण न्यायालयों में उपासना गृहों में, गरीबों के कुटियों में,साधारण व्यक्तियों के घरों में, छात्रों के पाठशाला में, सर्वत्र वे तत्त्व आलौकिक तथा कार्य रूप में परिणित होंगे। ( राजेंद्र प्रसाद गुप्त, स्वामी विवेकानंद व्यक्ति एवं विचार, राधा पब्लिकेशन , नई दिल्ली पृष्ठ- 108)

स्वामी जी धर्म को शिक्षा की आत्मा मानते थे। उनकी दृष्टि में धर्म एक साधना है, एक अनुभूति है, आत्मा से साक्षात्कार है। पाश्चात्य शिक्षा का एक दोष है, वह मनुष्य को अत्यंत स्वार्थी बना देती है। बुद्ध व्यक्तिको उस सर्वोच्च्य स्तर पर नहीं पहुँचा सकती जिस पर हृदयउसे पहुँचाता है। शिक्षा के माध्यम से स्वामी जी व्यक्ति के ऐसे गुणों का विकास चाहते थे, जिससे व्यक्ति आदर्श, चरित्रवान, बलवान तथा आत्मनिर्भर हो सके। इसलिए वे चहते थे की व्यक्ति उच्च स्तर पर कर्म योग, भक्ति योग, राज योग तथा ज्ञानयोग की विद्या सीखे।

स्वामी जी के अनुसार शिक्षा का एकमात्र अर्थ विद्यार्थी को अज्ञान से मुक्त करके उसे ज्ञान की प्रतीति करवाना है जिससे कि वह विद्या एवं अविद्या में महत्त्वपूर्ण भेद कर सके तथा सत्य व मिथ्या का अंतर समझकर अपने आप में निहित अनंत ज्ञान एवं शक्तियों को पहचान सके। अविद्या के दूर होने पर मुक्ति तो हो जाती है परंतु शिक्षा का कार्य छात्रों को इस विवेक ज्ञान का निरंतर विकास करने के लिए सक्षम बनाना है, जिससे वे भावी जीवन में सद्जीवन बिता सकें तथा अच्छे सशक्त मानव बन सकें।

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा दर्शन का मुख्य उद्देश्य मानव जीवन का निर्माण करना है। अत: स्वामी जी के अनुसार वही शिक्षा, शिक्षा है जो मानव का निर्माण करके उसे फल सिद्धि के लिए सक्षम बनावे और अंत में मोक्ष की प्राप्ति में सहायक हो सके।

स्वामी विवेकानंद यह स्वीकार करते हैं कि मानव निर्माण के चार मुख्य तत्व हैं। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा बौद्धिक। इन चारों तत्वों का सम विकास आवश्यक है। इसी को हम सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कहते हैं। इन चारों तत्त्वों के विकास के लिए ब्रह्मचर्य का पालन, एकाग्रशक्ति तथा नैतिक गुणों का विकास आवश्यक है। स्वामी जी ने स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास को आवश्यक बताया है।

स्वामी जी का मत है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं है। यदि शिक्षा सच्चे मानव का निर्माण करती है तो व्यक्ति का चिंतन स्वत: समाज हित में होगा और वह मानव समाज के हित की दृष्टि से सोचेगा और वैसा ही कार्य करेगा।

स्वामी जी ने शिक्षा के उद्देश्य के अंतर्गत समाज सेवा, देश भक्ति तथा राष्ट्रीय भावना के विकास पर भी जोर दिया है। वह भारतीय नागरिकों को समाज सेवा तथा राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण बनाना चाहते हैं जिससे कि वेदांत की उदात्त भावनाओं का जन-जन में समावेश हो सके।

 

स्वामी विवेकानंद जी भारत की अखण्डता के लिए एक सर्वमान्य भारतीय भाषा की आवश्यकता अनुभव करते थे, और इस दृष्टि से उन्होंने सभी बालकों को अंतर-प्रादेशिक विनिमय के लिए एक सार्वदेशिक भाषा सिखाने पर जोर दिया।

सामन्य ज्ञान के लिए वे मातृभाषा को सबसे शक्तिशाली वाहन मानते थे। आरम्भिक शिक्षा के माध्यम के रूप में उन्होंने मातृभाषा के अध्ययन पर जोर दिया। इसलिए वे कहते हैं: “लोगों की बोलचाल की भाषा में उन विचारों की शिक्षा देनी होगी। जनसाधारण को उनकी निजी भाषा में शिक्षा दो । उनके सामने विचारों को रखो। वे जानकारी प्राप्त कर लेंगे पर और भी कुछ आवश्यक होगा। उन्हें संस्कृति दो। जब तक तुम उन्हें संस्कृति न दोगे तब तक उनकी उन्नत दशा कोई स्थायी रूप प्राप्त नहीं कर सकती।

स्वामी जी मुख्यरूप से आदर्शवादी सम्प्रदाय के विचारक थे, लेकिन उनका शिक्षा दर्शन में यथार्थवादी, प्रकृतिवादी और प्रयोजनवादी दृष्टियों के लक्षण देखने को मिलते हैं । उनकी शिक्षा का मूल लक्ष्य था व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप का बोध कराना। उनके शैक्षिक विचार, उनके समसामयिक परिवेश, जीवनगत अनुभवों तथा मूल आध्यात्मिक, दार्शनिक मान्यताओं की सर्जना है। स्वामी जी के शिक्षा सम्बंधी सूत्र उनके महोपधि में उसी तरह से बिखरे पड़े हैं जिस तरह से समुद्र में रत्न, लेकिन उन सूत्रों का सावधानी से अंवेषण व संकलन करने पर एक सुंदर हार तैयार किया जा सकता है । उनके शिक्षा संबंधी विचार कुछ आदर्शों, कुछ मंत्रों, कुछ मार्गदर्शक सिधांतों के रूपमें जिन्हें विस्तृत रूप देने का अपने जीवन अवकाश नहीं मिला। शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में स्वामी जी की तूलना विश्व में महानतम् शिक्षा शास्त्रियों प्लेटो, रूसो और दट्रेन्ड रसेल से की जा सकती है। उन्होंने अपने शिक्षा दर्शन में व्यक्ति समाज दोनों के समरस संतुलित विकास को ही शिक्षा का प्रथम उद्देश्य माना है। शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण किया जाता है। समस्त अध्ययनों का अंतिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना । जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य के संकल्प शक्ति का प्रवाह संगठित होकर प्रभावोत्पादक बन सके उसी का नाम शिक्षा है। मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। सभी ज्ञान चाहे लौकिक हो या आध्यात्मिक सब मनुष्य के भीतर है, लेकिन प्राय: प्रकाशित न होकर ढका रहता है और जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता है तो हम कहते हैं कि हम सीख रहे हैं। वास्तव में कभी एक व्यक्ति दूसरे को नहीं सिखाता। हममें से प्रत्येक को अपने आप को सिखाना होता है। बाहर के गुरु तो केवल सूझाव अथवा प्रेरणा देने वाले होते हैं । स्वामी विवेकानंद अपने समकालीन शिक्षा व्यवस्था से क्षुब्ध थे और कहते थे कि विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों को रट कर अपने मस्तिष्क में उन्हें ठूसकर और विश्वविद्यालय की कुछ उपाधियाँ प्राप्त कर तुम अपने को शिक्षित समझते हो क्या यही शिक्षा है? शिक्षा का उद्देश्य मानव निर्माण, चरित्र निर्माण और जीवन निर्माण है।

मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक है कि मौलिक चिंतन को प्रोत्साहन दिया जाय। मन की एकाग्रता ही शिक्षा का सम्पूर्ण सार है। एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी, मनुष्य उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है। स्वामी जी लोगों को बोलचाल की भाषा में शिक्षा देने का आग्रह करते हैं। जन सामान्य में संस्कृत भाषा का प्रचार भी होना चाहिए। शारीरिक शिक्षा को वह अनिवार्य मानते हुए कहते हैं कि तुम्हें को शक्तिशाली बनाने की विधि जाननी चाहिए और उसकी शिक्षा दूसरों को देनी चाहिए। शरीर और मन दोनों को समान रूप से शक्तिशाली बनाना होगा। शक्ति ही जीवन है, कमजोरी मृत्यु। शक्ति परम सुख है अजर- अमर जीवन है।

स्वामी जी भारतीय नवजागरण की दृष्टि भी हैं और द्रश्टा भी वे शिक्षा में आध्यात्मिकता के साथ विज्ञान का समंवय चाहते थे। वे देश के नागरिकों को प्रयोगिक एवं तकनिकी शिक्षा देना चाहते थे। इसके साथ-साथ भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि के साथ कला की भी शिक्षा देना चाहते थे। मानव विकास के लिए वे सम्पूर्ण व्यक्तित्व का समविकास वे आवश्यक मानते थे। वे हमेशा यह कहते थे कि व्यक्ति के ग्रहण शक्ति के अनुरूप शिक्षा होनी चाहिए। कोई भी पद्धति ऐसी नहीं है जिसमें व्यक्ति की विशेषता का नास हो उसे वो विनासक मानते थे। बच्चों को शिक्षा देते समय निषेधात्मक नहीं होना चाहिए और लगातार उनको पढ़ने के लिए दबाव नहीं बनाना चाहिए क्योंकि इससे उनका विकास रुकता है। यदि आप उन्हें हतोत्साहित करेगे तो उनके विकास में बाधा होगी। हमेशा बच्चे को पढ़ाते समय उसे उत्त्साहित करने की जरूरत होती है । इसीलिए आवश्यक है कि विद्यार्थीयों की आवश्यकता के अनुसार शिक्षण में परिवर्तन होना चाहिए। उसकी प्रवृत्तियों के अनुसार मार्ग दिखाना चाहिए। हर विषय पढ़ाने के लिए कुछ विधियाँ एवं प्रविधियाँ होती हैं। मन को नियंत्रित करने के लिए 8 अवस्थाओं की बात उन्होंने की है। ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन- प्रत्यक्ष अनुभव, अनुमान तथा आगम की उपयोगिता वो स्वीकार करते हैं। उन्होने शिक्षण की 15 विधिओं की चर्चा की है जो निम्न हैं- 1. व्याख्यान विधि, 2. उपदेश विधि, 3. अंत:करणीय प्रकाश विधि, 4. प्रयोगात्मक विधि, 5. पत्राचार विधि, 6. आध्यत्मिक विधि, 7. ज्ञान विधि, 8. मौन विधि, 9. साक्षात्कार विधि, 10. प्रश्नोत्तर विधि, 11. तर्क, विचार-विमर्श और विश्लेषण विधि, 12. दृष्टांत विधी, 13. कथा-वार्ता, 14. प्रत्यक्ष ज्ञान, 15. अभ्यास विधि,

 

स्वामी जी एक शिक्षक थे अत: उन्होने अपने शिक्षण में उपदेश, व्याख्यान, शास्त्रार्थ, तर्क, विचार, विष्लेषण पद्धति का प्रयोग किया है। स्वामी जी गुरु के शक्तिभाव सिद्धांत में विश्वास करते थे और शिक्षण में आदर्श, अनुकरण तथा अभ्यास के समर्थक थे। वे शिक्षण विधियों में हमेशा दृष्टांत तथा कहानी का प्रयोग करते थे। वे मानते थे कि कोई भी किसी को कुछ नहीं सीखा सकता जो शिक्षक यह समझता है कि वह कुछ सीखा रहा है वह सब गुण गोबर कर देता है। वेदों तक में भी यही सिद्धांत है कि मनुष्य के अंतर में ज्ञान का समस्त भण्डार निहित है। एक अबोध शिष्य में भी केवल उसे जाग़ृत कर देने की आवश्यकता है और यही हमारा कार्य है। वे कहते है कि हर व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति दूसरे से भिन्न होती है। व्यक्ति अपनी मूक प्रवृत्ति के अनुसार ही विकास कर सकता है। गुरु का काम यह होता है कि शिष्य की मूल प्रवृत्तियों को पहचान कर उसके अनुसार ही उसे शिक्षा दे। वास्तव में हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपना शिक्षक अपने आप है। बाहर के गुरु दीपक मात्र हैं जो हमारे अंत:स्थ गुरु को सब विषयों का मर्म समझने के लिए प्रेरित कर देते हैं । पुस्तकों के अध्ययन से आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो जाती। वह शक्ति हमें पुस्तकों में नहीं गुरु से प्राप्त होती है। उनकी सहायता के बिना कोई भी ज्ञान नहीं आ सकता वास्तव में गुरु ही आत्मानुभूति का साधन है। वे मानते थे कि जिन देशों में गुरु और शिष्य का सम्बंध विद्यमान है केवल वहीं अशाधारण आध्यात्मिक पुरुष पैदा हुए।

शैक्षिक व्यवस्था:-

शिक्षा का भार स्वामी विवेकानंद उन हजारों सन्यासियों को सौपना चाहते थे जो केवल धर्मोपदेश करते हुए गाँव-गाँव में घूमते रहते थे। उनकी सहायता से वे अनपढ़ लोगों को बहुत कुछ गणित, ज्योतिष, भूगोल आदि की शिक्षा दे सकते हैं। विभिन्न राष्ट्रों के बारे में कहानियाँ सुनाकर वे गरीबों को नाना प्रकार के समाचार दे सकते हैं। वे गरीब जो पुस्तको से जीवन भर न जुड़ पाते हैं और न कुछ जान पाते हैं, उससे सौ गुना वो बातचीत के माध्यम से प्राप्त कर लेते हैं। भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब बच्चे पाठशाला जाने के वजाय खेतों में अपने माता-पिता को मदद देना चाहता है या दूसरे किसी उपाय से रोटी कमाने का प्रयत्न करना पसंद करेंगे। इसलिए यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न जाय तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास क्यों नहीं जाते। यदि गरीब लड़का शिक्षा के मंदिर न जा सके तो शिक्षा को ही उसके पास जाना चाहिए। वे भारत में शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय नीति और सिद्धांतों के आधार पर गठित करना चाहते थे। वे स्त्री और पुरूष दोनों की शिक्षा प्रसार के लिए यह आवश्यक समझते हैं कि पहले योग्य अध्यापक बनाया जाय जो ब्रह्मचारी और त्यागी हो तथा उच्चभाव से ओत-प्रोत हों ऐसे व्यक्ति ही शिक्षा प्रदान कर सकते है। महिलाओं के प्रशिक्षण के लिए भी अलग से मठ की स्थापना करना चाहते थे जहाँ पर ब्रम्हचारी स्त्रियाँ और संयासिनी को सुशिक्षित बनकर नारी जाति के लिए भी शिक्षा के लिए चेष्टा करें। स्वामी जी नि:शिल्क शिक्षा के पक्ष में थे, क्योंकि शिक्षा कार्य त्यागी और तपस्वियों का ही कार्य है जो आध्यात्मिक लोक से दूर है सम्भवत: वे अर्जित ज्ञानका मुल्यांकन मौखिक परीक्षा या प्रयोगात्मक अर्जित ज्ञान के आधार पर करना चाहते थे।

निष्कर्षत: स्वामी विवेकानंद भारतीय और विश्व इतिहास चुनिन्दा महामानवों में हैं अपने उपदेशों के माध्यम से जो राष्ट्रीय जीवन को एक अभिनव दिशा प्रदान करते हैं । वे भारतीय इतिहास के संधियुग में एक ऐसी चट्टान की तरह खड़े हैं जो प्राचीन और नवीन को एक दूसरे से अलग भी करती है और उनको जोड़ती भी है। उनके व्यक्तित्व और विचारों में भारतीय परम्परा के ऐसे श्रेष्ठ तत्व विद्यमान हैं जो न केवल समाज के की कुरीतियों को समझते हैं बल्कि उन्हें दूर करने का भगीरथ प्रयास भी किया । उन्होने भारतीय संस्कृति के विशिष्ट और रचनात्मक तत्वों को समझा और उसे आत्मसात करते हुए भारतीयों का ध्यान इस तरफ आकृष्ट किया । भारत की आत्मा और पश्चिम का शरीर यह स्वामी का आदर्श था । उनका व्यक्तित्व समुद्र की तरह विशाल था । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा प्रखर बुद्धि के स्वामी थे । उनको विज्ञान, ज्योतिष, गणित, लोकविद्या तथा भारतीय भाषाओं में हिंदी, संस्कृत, बंग्ला व युरोपीय भाषाओं में विशेषकर अंग्रेजी पर विशेष अधिकार था वे कवि थे तथा बंग्ला भाषा में रचनाएँ लिखते थे। वे ऐसे शिक्षक थे जिन्होंने कतिपय आधारभूत सिद्धांत प्रस्तुत किये। जिससे व्यक्ति अपने जीवन क चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सके। शिक्षा दर्शन की दृष्टि से स्वामी विवेकानंद आदर्शवादी, यथार्थवादी, प्रयोगवादी एवं मानवतावादी शिक्षकों के समंवित रूप हैं। तथा शिक्षा की परिभाषा व्यक्ति में अंतर्निहित शक्तियों के विकास के रूप में की। शिक्षा के द्वारा मनुष्य का निर्माण होता है। समस्त अध्ययनों का अंतिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है। वे शिक्षा का उद्देश्य मानव निर्माण ही मानते थे।

समकालीन भारतीय रंगमंच स्वामी रामदेव अपने योग शिक्षा के माध्यम से भारतीय राष्ट्र निर्माण की जो अभिनव पहल की है वे न केवल भारतीयों के शारीरिक और मानसिक विकास करेंगे बल्कि आने वाले दिनों में सम्पूर्ण मानवता के अभिनव निर्माण की आधारशिला बनेंगे ऐसा मेरा विश्वास है। सही मायनों में यह देश आदर्श संतों के पदचिन्हों पर चलकर विश्व का शिरमौर बनेगा । इसमें कोई शक नहीं। इसी लिए कहा गया है कि-

जहाँ कहीं है ज्योति जगत में ।

जहाँ कहीं है उजियारा  ॥

वहीं खड़ा है अंतिम कोई ।

मोल चुकाने वाला     ॥

 

 

  1. विवेकानंद का जन्म कब हुआ था।
    • 1864                  ख. 1863
    • 1868                  घ. 1871
  2. उनके पिता का नाम क्या था?
    • विश्वनाथ दत्त           ख. देवदत्त
    • सुनीलदत्त              घ. भैरोदत्त
  3. विवेकानंद का प्रथम नाम क्या था?
    • सुरेंद्र नाथ ख. नरेंद्रनाथ
      • महेंद्रनाथ                घ. काशिनाथ

 

  1. विवेकानंद की माता का नाम क्या था?
    • राजेश्वरी ख. धमेश्वरी

ग. भुनेश्वरी              घ. दंतेश्वरी

 

  1. स्वामी विवेकानंद का जन्म कौन से प्रांत में हुआ था?
    • उड़ीसा ख. असम
    • त्रिपुरा                  घ. पश्चिमी बंगाल

 

  1. विवेकानंद के दादा का नाम क्या था।
    • दुर्गाचरण           ख. राधदास
    •  भक्तदास              घ. समर्थदास

 

  1. पश्चिम देश से यात्रा करने के बाद उनकी वापसी किस सन में हुई?
    • 1890            ख. 1894
    • 1897            घ. 1900

 

  1. विवेकानन्द के गुरु का क्या नाम था?
    • दयानंद सरस्वती ख. ईश्वरचंद विद्यासागर
    • रामकृष्ण परमहंस  घ. महात्मा गाँधी

 

  1. रामकृष्ण परमहंस की नियुक्ति कब हुई थी?
    • 1886             ख. 1885
    • 1900                  घ. 1905

 

  1. स्वामी विवेकानंद किस सन में सन्यासी वेश में भारत भ्रमण किया?
    • 1888 ख. 1889
    • 1885                  घ. 1891

 

  1. स्वामी विवेकानंद अमेरिका के किए कब प्रस्थान किये?
    • 30 मई1892 ख. 31 मई 1893
    • 28 मई 1881     घ. 30 मई1895

 

  1. विवेकानंद अमेरिका के धर्म संसद में कब भाग लिए?
    • 11सितम्बर 1893 ख.11 सितम्बर1895
    • 11 सितम्बर1897 घ. 11 सितम्बर1898

 

  1. अमेरिका में धर्म संसद का आयोजन किस नगर में हुआ?
    • न्युयार्क     ख. वाशिंगटन
      • कोलनगर घ. लांस एंजिल्स

 

  1. हिंदू लोग तुम्हें पापी नहीं कहते, धर्म संसद में यह किसने कहा?
    • प्रतापचंद्र ख. मीरचंद्र

ग.विवेकानंद           घ. अनीबेसेंट

  1. भारतवर्ष में हमारे धर्म प्रचारकों को भेजना मूर्खता मात्र है। यह किसने कहा?
  • नेशनल हेराल्ड ख. टाइम्स आफ इंडिया

ग.द हिंदू              घ. हिंदुस्तान टाइम्स

  1. विवेकानंद किस हिंदू दर्शन को मानते थे?
  • द्वैतवाद ख. अद्वैतवाद

ग.द्वैताद्वैतवाद  घ. विशिष्टाद्वैतवाद

  1. विवेकानंद के पिता उन्हें क्या बनाना चाहते थे?
  • वकील ख. डॉक्टर

ग.पत्रकार              घ. न्यायधीश

 

  1. विवेकानंद मानव जीवन का सर्वोच्च आदर्श किसे मानते थे?
  • नास्तिक ख. सन्यासी

ग.मानवीयता           घ. समाज सेवक

  1. नरेंद्र की आस्था किस पर थी ?
  • साकार ख. निराकार

ग.भौतिकवादी                घ. कुछ भी नहीं

  1. स्वामी जी ने धर्म संसद में अपना भाषण किससे प्रारम्भ किया था?
  • हिंदू धर्म              ख. ईस्लाम धर्म

ग.ईसाई धर्म                 घ. सिख धर्म

  1. स्वामी जी ने कितने ग्रंथों की रचना की?
  • तीन ख. पाँच

ग.सात                घ. दस

  1. ‘मेरे गुरुदेव’ के लेखक कौन हैं?
  • दयानंद सरस्वती
  • महात्मा गाँधी
  • रामकृष्ण परमहंस
  • विवेकानंद
  1. 23. विवेकानंद के कितने भारतीय शिष्य थे? जिनको उन्होंने दीक्षा दी।
  • 13 ख. 18

ग.20                 घ. 22

  1. विवेकानंद का स्वर्गवास कब हुआ?
  • 4 जुलाई 1902          ख. 4 जुलाई 1905

ग.4 जुलाई 1907 घ. 4 जुलाई 1903

  1. सबसे पहला प्रभाव स्वामी विवेकानन्द का किस धर्म संगठन पर पड़ा?

क.आर्य समाज      ख. ब्रह्मसमाज

ग.थियोसोफिकल सोसायटी

घ.प्रार्थना समाज

  1. विश्व के सभी धर्मों और दर्शनों को वह किस दर्शन की ओर झुका हुआ बताते थे?

 

  • अद्वैतवाद ख. द्वैतवाद

ग.ईसाई दर्शन                घ. ईस्लाम दर्शन

  1. स्वामी विवेकानन्द किस तरह के विचारक थे?

क.आशा वादी             ख. निराशावादी

ग.साम्यवादी           घ. इनमें से कोई नहीं

  1. स्वामी जी वर्तमान शिक्षा पर …………..देते थे
  • ब्रह्मचर्य             ख.आदर्श

ग.सत्य वचन    घ.इनमें से कोई नहीं

  1. शिक्षा का मेरूदण्ड किसे मानते हैं?

क.ज्ञान               ख. विज्ञान

ग.धर्म                घ. इनमें से कोई नहीं

  1. स्वामी जी के अनुसार सम्पूर्ण शिक्षा का ध्येय क्या है?

क.मनुष्य का सर्वांगीण विकास

ख. मनुष्य के ज्ञान का विकास

ग. मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास

घ. इसमें से कोई नहीं

  1. स्वामी विवेकानंद किस तरह के शिक्षा शास्त्री थे?

क. व्यवहारिक शिक्षा शास्त्री

ख. नव्य शिक्षा शास्त्री

ग. परम्परागत शिक्षाशास्त्री

घ. इनमें से कोई नहीं

  1. स्वामी की शिक्षा का परम लक्ष्य क्या था?

क. आदर्शबोध कराना

ख. वास्तविक स्वरूप का बोध कराना

ग. आत्मसाक्षात्कार कराना

घ. इसमें से कोई नहीं

  1. विवेकानंद के अनुसार शिक्षा द्वारा मनुष्य का क्या किया जाता है?

क. मनुष्य का निर्माण किया जाता है

ख. उसे सामाजिक बनाया जाता है

ग. उसे अंध विश्वासों से मुक्त किया जाता है?

घ. इनमें से कोई नहीं

  1. स्वामी जी कैसी शिक्षा चाहते थे ?

क. व्यक्ति पुस्तकीय ज्ञान जाने

ख. व्यक्ति नौकरी करने योग्य बने

ग. व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो

घ. इनमें से कोई नहीं

  1. स्वामी विवेकानंद शिक्षा के क्षेत्र में किस वाद के समर्थक थे ?

क. आदर्शवाद

ख.यथार्थवाद

ग. व्यक्तिवाद

घ. इनमें से कोई नहीं

  1. वे व्यक्ति को शिक्षा किस रूप में देना चाहते थे?

क. स्वतंत्र रूप में

ख. परम्परागत रूप में

ग. आदर्शरूप में

घ. इनमें से कोई नहिं

  1. वे मनुष्य के किन गुणों का विकास चाहते थे?

क. सृजनशीलता

ख. सहनशीलता

ग. श्रमशीलता

घ. इनमें से कोई नहीं

  1. व्याख्यान, उपदेश एवं परामर्श विधि का प्रयोग स्वामी ने किसके लिए किया ?

क. धर्म शिक्षा देने के लिए

ख. ज्ञान शिक्षा देने के लिए

ग. लोक शिक्षा देने के लिए

घ. इनमें से कोई नहीं

  1. स्वामी विवेकानंद के अनुसार आचार्य के कितने मुख्य कार्य हैं?

क. 5                    ख. 4

ग. 2                    घ. 3

  1. “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” निम्न कथन किसका है?

क. दयानंद

ख. रामकृष्ण परमहंस

ग. विवेकानंद

घ. ईश्वरचंद विद्यासागर

 

स्वामी विवेकानंद का कृतिक एवं व्यक्तित्व

स्वामी विवेकानंद का कृतिक एवं व्यक्तित्व

इस भारत भूमि में ऐसे ऐसे कर्म योद्धाओं का अवतरण देखा है जिन्होंने अपने समय एवं समाज के साथ एक बड़ा हस्तक्षेप ही नहीं किया; बल्कि पूरे विश्व में अपने विचार के माध्यम से विचारों का ऐसा पूंज फैलाया जिन्होंने समाज में बड़े परिवर्तन की एक बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। भारतीय परंपरा में यह गूँजता ही रहा है कि यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत्।

अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाम साधूनां विनाशाय च दुस्कृताम्।

धर्म संस्थापनार्थाय सम्भावमि युगे-युगे॥

अर्थात जब-जब धर्म की हानि हुई है कोई न कोई महापुरुष राम,कृष्ण इसामसीह, मोहम्म्द, गुरुनानक आदि जन्म लेकर इस पृथ्वी पर न केवल समरसता फैलाई है, बल्कि समाज की समस्त कुरुतियों को बदलने के लिए भागीरथ प्रयत्न किया है। इसी में एक विवेकानंद हैं जिन्होंने अल्पायु में अपने विचारों के चकाचौंध से न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया।

स्वामी विवेकानंद ने वेदांत के द्वारा ऐसे नये मानव का निर्माण करना चाहते थे जो पूरे विश्व में शांति, सदभाव, विश्व बंधुत्व की भावना का प्रचार – प्रसार कर सके। उनके हृदय में राष्ट्रनिर्माण की भावना में विश्व निर्माण की भावना भी समाहित है। स्वामी विवेकानंद के चिंतन में जीवन एवं जगत के सभी पहलू के अंकूर मिलते हैं। उनमें एक तरफ मन के परिवर्तन की संकलपना है तथा आत्म उत्थान की भावना है तो दूसरी तरफ पूरे विश्व के समाज सुधार की प्रेरणा और नयी सृष्टि का संकल्प भी है। ऐसे स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के प्रसिद्ध दत्त परिवार में 12 जनवरी 1863 ई. में हुआ।  इनका वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ था तथा पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था। जो बंगाल के सुपसिद्ध वकिल थे। इनकी माता श्रीमती भुनेश्वरी देवी धर्म, परायणा, साध्वी, बुद्धिमती एवं साहसी महीला थीं। इनके बाबा श्री दुर्गाचरण दत्त बहुत ही सज्जन, नेक और अच्छे इंसान थे, जो फारसी, संस्कृत एवं कानून के बहुत बड़े ज्ञाता थे। स्वामी जी पर अपने माता-पिता एवं दादा का बहुत प्रभाव था। कहा जाता है कि प्रारंभ से ही महापुरुषों के लक्षण दिखने लगते हैं । होनहार विरवान के होत चिकने पात,बचपन से ही विवेकानंद को पूजा-पाठ एवं ईश्वर आराधना में बड़ा मन लगता था।आराधना में वे इतनी तल्लीन हो जाते थे की भौतिक जगत से पूरी तरह कट जाते थे।

इनके पिता की बड़ी लालसा थी की उनका बेटा वकील बने और उनकी परंपरा को आगे बढाये\उनके पिता सहृदय गृहस्थ और एक सामाजिक प्राणी थे और अपने पुत्र में इन्हीं का विकास देखना चाहते थे, लेकिन शायद परमात्मा  को यह मंजूर नहीं था। इनकी शिक्षा –दीक्षा घर पर ही हुई; क्योंकि प्राथमिक शिक्षा अपरिहार्य कारण से नियमित   पाठशाला में नहीं हो सकी। इनके पिता ने इनके पठन-पाठन की घर में व्यवस्था कर दी, सात वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने संपूर्ण व्याकरण कंठस्थ कर लिए तथा रामायण एवं महाभारत के लंबे-लंबे प्रसंगों के अपने स्मृति में बसा लिया।  सात वर्ष की आयु में ही कॉलेज में भरती हो गये । इन्होंने पढने के साथ-साथ खेल-कूद , व्यायाम, संगीत,नाटक आदि विषयों में रूचि ली और सभी में उनकी विशेष दक्षता समय-समय पर प्रकट होती रही। सोलह वर्ष की आयु में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की और प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया । बाद में एसेम्बली इंस्ट्रीक्शन में पढने गये। अध्ययन में उनकी प्रतिभा सदैव सर्वोच्च रही।  उनकी इस प्रतिभा को देखकर ड्ब्लू डब्लू हेस्टे ने एक बार कहा कि…

“I have travelled far and wide but I have never come across a lad of his talent and possibilities. He is bound to make his mark in life”

प्राचार्य विलियम हेस्टी की प्रेरणा से रामकृष्ण परंहस के साथ 1881 में दक्षिनेश्वर मंदिर कलकता में उनकी भेंट हुई, जो इनकी जीवनधारा को बदलने में अहम योगदान दिया। रामकृष्ण परंहस उन्हें देखते ही पहचान लिया और कहा “मैं जानता हूँ आप स्वयं नारायण के अवतार है जिन्होंने मानवता का उद्धार करने के लिए इस पृथ्वी पर जन्म लिया है और यही से उन दोनों में गुरु शिष्य का संबंध विकसित हुआ। नरेंद्र ने पहला सबाल किया, क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है? रामकृष्ण ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया।

“God can be realized one can see and talk to him as I am doing with you But who cares to do so.”

कुछ समय बाद नरेंद्र के पिता का देहांत हो गया और गृह संचालन की पूरी जिम्मेदारी उनपर आ गयी, लेकिन वे घबराये नहीं। नरेंद्र की ईश्वर के प्रति आस्था बढती गयी। एक दिन उनको प्रतीत हुआ कि ईश्वर का भी अस्तित्व है क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही कठिनाईयों का साहस के साथ सामना किया जा सकता है। लगातार रामकृष्ण के सानिध्य में धीरे-धीरे गृहस्थ से सन्यांसी बना दिया। सन 1886 में रामकृष्ण के मृत्यु के पश्चात नरेंद्र ने उनकी शिक्षा का प्रचार –प्रसार अपने जीवन का मूल मंत्र बनाया। नरेंद्र आरंभ से जिज्ञासु थे वे हर बात में सत्य का अनुसंधान करने लगते थे। अपने छात्र जीवन से ही उनकी रूची शास्त्रों, साधु संतों और धर्म आलोचना आदि में अधिक थी। अपने इसी स्वभाव के कारण विश्व उनके लिए एक जिज्ञासा का विषय बनता चला गया और वे निरंतर जीवन पर्यंत सत्य की खोज में लगे रहे। जीवन के इस सोच के विकसित होने के कारण उन्होंने यह संकल्प व्यक्त किया कि हमें जीवन की प्राप्ति तभी हो पाती है जब पूरी लगन, निष्ठा और समर्पण के साथ किसी के लक्ष्य के लिए लगते हैं। उन्होंने यह तय कर लिया था कि जीवन की मुक्ति सन्यास में है इसलिए एक जगह उन्होंने कहा है कि “मैं समझता हूँ कि सन्यास ही मानव जीवन का सर्वोच्य आदर्श होना चाहिए। नित्य परिवर्तनशील अनित्य संसार के पीछे सुख की कामना के पीछे दौड़ने की अपेक्षा उस अपरिवर्तनशील सत्यम शिवम सुंदरम को पाने के लिए प्राणार्पन से कोशिश करना ही सौ गुणा श्रेष्ठ है।“ (विवेकानंद साहित्य खण्ड -7, पृष्ठ -234)

नरेंद्र के स्वभाव को देखते हुए रामकृष्ण ने एक बार कहा था कि “जिस दिन नरेंद्र का जीवन दु:खों, काँटों और विपतियों से सन्निकट होगा उसके चरित्र का अभिमान विचलित होकर अनंत करूणा में परिवर्तित हो जाएगा। उसके अहम जो दृढ़ विश्वास है वह तमाम निराश आत्माओं में उस विश्वास और आस्था को उत्पन्न करने का साधन बनेगा, जिसे उन्होंने थोड़े समय में खो दिया है। शक्तिशाली आत्मनियंत्रण के उपर आधारित उनके व्यवहार की जो स्वच्छंदता है वो दूसरे की आँख में आत्मा की सच्ची स्वतंत्रता बन कर चमकेगी। (समकालीन भारतीय दर्शन, डॉ. श्रीमती लक्ष्मी सकसेना,पृष्ठ -90)

1886 ई. में श्री रामकृष्ण परम्हंस का मृत्यु हुआ। मृत्यु के पूर्व उन्होंने नरेंद्र का स्पर्श करते हुए अपना सर्वस्व उतराधिकार उन्हें दिया और कहा कि बेटा आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर बन गया। स्पर्श के साथ ही नरेंद्र को समाधि के आनंद की अनुभूती हुई। अब नरेंद्र नरेंद्र न रह कर स्वामी विवेकानंद हो गये और उनके जीवन में हमें ज्ञान, भक्ति, कर्म और वैराग्य का अपूर्व सम्न्वय मिलने लगा। 1888 ई. में स्वामी विवेकानंद जी हाथ में कमंडल लिए सन्यासी वेशभूषा में उतर भारत के प्रमुख स्थानों जैसे-वाराणसी, हरिद्वार , वृंदावन, आगरा, अयोध्या गये। बाद में हिमालय कुछ समय रहने के बाद बिहार के प्रमुख नगरों, राजस्थान में जयपुर,अलवर्। गुजरात में अहमदबाद, भुज,सोमनाथ, द्वारका,पोर्वंदर, माहवीर, पाली टाना, काठियावाड़ ।महाराष्ट्र में बम्बई ,पुणा, आंध्रप्रदेश में कोचिन, त्रिवेंद्रम, तमिलनाडु में मदुरै एवं कन्याकुमारी की यात्रा की। इस यात्रा भ्रमण का विवेकानंन्द के अनुभव संसार में कई अनुभूतियाँ जाग्रत हुए। उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों के रीति-रिवाज, आचार-विचार आदि का परिचय पाया। इस परिचय से स्वामी विवेकानंद को भारत के बारे में जो ज्ञान प्राप्त हुआ वो साधारण न था उसे उन्हें भारत की जनता के निर्धंता,अशिक्षा तथा कुसंस्कारों आदि का पता लगा।

हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा में स्वामी जी ने देखा की धर्म, देश भारत वर्ष दुभिक्ष, महामारी, दु:ख, रोग, शोक से जर्जरित है। धनिक लोग गरीबों का चूसकर बिलास की पिपासा को तृप्त कर रहे हैं। आहार से भुखे –प्यासे  लोग भुमंडल पर युग युगांतर की निराशा लिए अन्न के लिए तरस रहें है। शिक्षा के अभाव के कारण पुरोहित वर्ग धर्म से भय्भीत कर रहे हैं। धर्म के बारे में अज्ञान होने के कारण भारतीयों के हृदय में न आशा है बल है, इन सबकों देखकर  स्वामी का हृदय द्रवीभूत हो गया। और उन्होंने कन्याकुमारी के पास शीलासन पर उपर्युक्त बुराई को दूर करने का संकल्प लिया।

स्वामी जी का विश्वास था बभुसितों को शिक्षा नहीं दी जा सकती और उसके बिना धर्म की प्राप्ति नहीं हो  सकती। रामकृष्ण कि मौलिक शिक्षा थी कि सभी धर्म सत्य है, और ईश्वर की उपलब्धी की उपाय मात्र है।

स्वामी विवेकानंद के द्वारा की यही सम्पति थी। उनकी पीठ पर व्यापीत युग-युग की संस्कृति का वरदहस्त था।

विश्व संसद और पाश्चात देशों की यात्रा

31 मई 1893 ई. को स्वामी विवेकानंद अपने गुरू की लोक कल्यायणी इच्छा को लेकर भारत से अमेरिका के तरफ प्रस्थान किया और लेभर, सिंगापुर,हांगकांग, कैण्टन और नागाशाकी होते हुए जुलाई मध्य तक शिकागों पहुँच गये। इस यात्रा में स्वामी जी ने एशिया की सांस्कृतिक एकता और उसमें भारतीय अनुदान की अनुपम झाँकी प्रस्तुत की, चीन में उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की अमूल्य पाण्डुलीपियाँ भि लि जिनका उन्होंने अपने किया । जापान में उन्हें पवित्र सूत्रों का श्लोक मिला इन सब वस्तुओं को देखकर उन्हें पूर्ण विश्वास हो ग्या कि एशिया के आध्यात्मिक एकता में भारत का कितना महान योगदान रहा है। यहाँ पहुँचकर अमेरिका की शक्ति , धन, सृजनात्मक प्रतिभा एवं समृद्धि को देखकर वे आश्चर्य चकित हो उठे। जिस उद्देश्य से वे अमेरिका गये, उस धर्म सभा में नियमानुसार उन्हें प्रवेश नहीं मिल पा रहा था, लेकिन प्रोफेसर जे.एय.राइट के सहयोग से अंतत: उन्हें धर्म संसद में प्रवेश मिला, 11 सितंवर सोमवार 1893 में कोलनगर हॉल में धर्म संवाद प्रारंभ हुआ। भारत से आये प्रतिनिधियों में ब्रह्म समाज के प्रताप चंद्र मजुमदार और नागरकर गाँधी जैन समाज के वीर चंद, कियोसफी के ओर से एनी बेसेंट एवं चक्रवर्ती तथा स्वामी विवेकानंद आदि हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

विवेकानंद ने अपने वक्तव्य की शुरुआत करते हुए कहा कि अमेरिकावासियों भाईयों एवं बहनों । उनके इस संबोधन को सुनकर पूरी सभा दो मिनट तक करतल ध्वनि करता रहा। स्वामी जी ने अपना भाषण हिंदू धर्म से आरंभ किया। उन्होंने हिंदू धर्म को सभी धर्मों का जनक बताया; क्योंकि इसी धर्म ने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया। अपने मत को पुष्टि के लिए उन्होंने गीता के पदों के उद्धरणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म में साम्प्रादायिकता , संकीर्णता, धर्मांधता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार स्वामी जी ने इस महान आध्यात्मिक धर्म महासभा में वेदांत के विजय का शंखनाद किया। उन्होंने अमेरिका इंग्लैंड आदि देशों को भारतीय दर्शन के मौलिक सिद्धांत की जानकारी दी। यह विश्वविद्यालय के लिए एक नया संदेश था। इस कारण अंधकार में भटकते हुए मनुष्य को एक अभिनव ज्ञान का मार्ग प्रशस्त हुआ।

स्वामी जी ने अमेरिका निवासियों को हिंदुओं के बारे में बताया कि हिंदू लोग तुम्हें पापी कभी नहीं कहते । तुम सब अमृत की संतान हो। इस पृथ्वी पर पाप नाम की कोई चीज नहीं है। यदि कोई पाप है तो वह है मनुष्य को पापी कहना। तुम सर्वशक्तिमान आत्मा ही शुद्ध मुक्त महान है। उठो, जागो और स्वंय को प्रकट करने की चेष्टा करो” (डॉ. सत्येंद्रनाथ मजुमदार, विवेकानंद चरित्र, पृष्ठ- 110) उनको इस मनोवैज्ञानिक व्याख्यान का चुम्बकीय प्रभाव पूरे अमेरिका पर पड़ा और अमेरिकावासी उनके व्यक्तित्व से अभिभूत हो गये। अमेरिकन राष्ट्र विवेकानंद की प्रशंसा से मुखरित हो उठा और हर अमेरिकावासी उनके सानिध्य के लिए उत्सुक हो उठा। न्यूयार्क से प्रकाशित हेराल्ड अखबार ने इस अवसर पर लिखा कि शिकागो धर्मसभा में विवेकानंद ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि धर्म सभा में इस प्रकार के अमुमन राष्ट्र भारत वर्ष में हमारे धर्म प्रचारकों को भेजना मूर्खता मात्र है। इस संदर्भ में वास्टन इवनिंग ट्रेंसलिस्ट में लिखा था। “ He is really a great man, noble, simple, sincere, and learned beyond comparison  with most of our scholars.”

स्वामी विवेकनंद ने धर्मसम्मत संसद में अपनी वकपटुता तथा ज्ञान से वेदांतिक ओजस्वी भाषणों से अमेरिकावासियों को भारत के प्रति प्रेम करने के लिए मजबूर कर दिया । उन्हें यह सोचने के लिए विवश कर दिया भारत भी हमारे जैसा ही एक देश है जहाँ हमारे जैसे मानव निवास करते हैं उनका धर्म, रीति रिवाज हमारे धर्म और ईश्वर जैसा ही है। 150 वर्षों से ईसाइ धर्म प्रचारक हिंदुत्व की जो निंदा फैला रहे थे उस पर रोक लगा दी और सारा पश्चिमी लोक स्वामी के मुख से हिंदुत्व का आख्यान सुन कर गद-गद हो रहा है। तब हिंदू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव को महसूस करने लगे। अमेरियत के रंग में रंगे भारतीय ने जब देखा कि यूरोप और अमेरिका भी हिंदूत्व की ऊँचाईयों को समझने लगा तो वे भी इसकी ऊँचाई  महसूस करने लगे । इस प्रकार हिंदुत्व को बोलने के लिए अंग्रेजी भाषा ईसाई धर्म एवं यूरोपिय बुद्धिवाद की छवी से जो तूफान उठा था वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे वक्ष से टकराकर लौट गया।

धर्म सभा पर अब अपना, मत प्रस्तुत करते हुए सिस्टर निवेदिता लिखती है कि “ विश्वधर्म सभा के समक्ष स्वामी के अभिभाषण के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण प्रारंभ किया तो विषय था, हिंदुओं का धार्मिक विचार किंतु जब उसका अंत किया तब हिंदु धर्म की सृष्टि हो चुकी थी।

धर्म सभा के विज्ञान विभाग के अवीन मैरध्यक्ष मिस्टर मैरीन ने लिखा कि धर्म संसद पर एवं सामान्य तौर पर अमेरिकी जनता पर जितनी प्रभाव हिंदूधर्म का पड़ा उतना अन्य किसी धर्म का नहीं। हिंदू धर्म के सबसे महत्व पूर्ण एवं विशिष्ट प्रतिनिधि थे स्वामी विवेकानंद जी जो वास्तवमें धर्म संसद में निसंदेह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावी व्यक्ति थे, सभी अवसरों पर, अन्य किसी ईसाई वक्ता की अपेक्षा अधिक सम्मान एवं सराहना मीली । कट्टर ईसाई ने भी उनके संबंध में यह कहा कि यह मनुष्यों में राजा हैं।

विवेकानंद से गहरे प्रभावित डॉ. एनी वेसेंट ने लिखा है कि, “एक प्रभावी व्यक्तित्व …. पीले एवं नारंगी वस्त्रों में सुशोभीत , शिकागो के बोझील परिवेश में भारत को सूर्य की तरह चमकने वाला सिंह सा मस्तक, अंतभेदी आँखे , संवेदंशील अओज, फूर्तिली और अप्रत्याशित गति …. स्वामी विवेकानंद की छाप कुछ इसी तरह भी मुझ पर पड़ी। लोग उन्हें योद्धा सन्यासी कहतेहैं और वे कुछ गलत नहीं कहते, क्योंकि उनकी पहली छाप सन्यासी की अपेक्षा योद्धा की अधिक थी। उनके जाति में अपने देश एवं जाति का अभिमान कूट-कूट कर भरा था। भारत का यह दूत ,उसकायह पुत्र उसे लज्जित होने देने वाला नहीं था। वह अपनी मातृभूमि का संदेश लेकर आया,उसके नाम पर बोला और इस संदेश वाहक ने अपनी शाही भूमि की गरिमा का स्मरण किया, जहाँ से वह आया था। उसकी वाणी से मुग्ध हो विशाल जन समुदाय उसके शब्दों पर कान लगाये रखता है कि कहीं एक भी अक्षर न छूट जाय।  एक भी लय भूल न जाए। एक व्यक्ति उस दिन बोल उठा, और हम उस देश की जनता के लिए मिशनरी भेजते है। उचित तो यह होगाकि वे हमारे पास अपनी मिशनरी भेजे।

विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार बिल ड्यूरेंट लिखते हैं कि वे (स्वामी जी) वर्ल्ड फेयर के उपलक्ष्य में आयोजित धर्मों के पार्लियामेंट में उपस्थित हुए और अपने महीमामंडीत व्यक्तित्व , सभी धर्मों के एकता में अपनेसंदेश एवं मानव से वही ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ उपासना है, ऐसा अपनी सरल नैतिकता के द्वारा सभी को वशीभूत कर लिया। कट्टर पादरियों ने पाया कि वे लोग एक ही-धर्म का सम्मान कर रहे है। भारत लौटकर अपने देशवाशियों के सम्मुख विवेकानंद ने ऐसे शक्ति सम्पन्न धर्म का उपदेश दिया जैसा वैदिक काल से लेकर अभी तक किसी ने उन्हें नहीं दिया था। जनसाधरण उनके भाव को किस प्रकार ग्रहण करेगा इसकी परवाह नहीं करते थे। जो सम्प्रदाय उनके विरोधी थे वे ही बाद में उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंगलैंड में भी उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंग्लैंड में भी उनके व्यक्तित्व का दूरगामी प्रभाव पड़ा। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि जब तक प्राच्य प्रवधि पाश्चात-ज्ञान का  संगम नहींहोगा तब तक मानव कल्याण संभव नहीं दिखना। वे वेदांत और विज्ञान का बिज समंवय चाहते थे। स्वामी जी जानते थे, जब तक हिंदू धर्म कि बौद्धिक एवं वैज्ञानिक पद्धति प्रस्तुत नहीं की जायगी तब तक वह पाश्चात जगत को स्वीकार नहीं हो सकती है। इसी उद्देश्य हेतु उन्होंने अपने पाश्चात शिष्यों को भारत भेजा और भारतीय शिष्यों को पाश्चात भेजा। 1897 में भारत लौटने पर उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। धीरे-धीरे हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के पूनर्जागरण और उन्नयन उनके विशेष योगदान की सर्वत्र चर्चा होने लगी । हिंदू धर्म के महान आचार्य के रूप में उनका स्वागत होने लगा। उन्होंने अपने संघ के माध्यम से वेदांत की शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप देने लगे। उनका अद्वैत संघ सांस्कृतिक उन्नयन एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण के कार्य में लगी थी। स्वामी विवेकानंद जी की देश की सबसे बड़ी देन है। स्वामी जी ने डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकास वाद का गहरा अध्ययन किया था उनका स्पष्ट मान्यता था कि डार्विन  का विकास वाद ठीक होने पर भी उसके निष्कर्ष अंतिम नहीं है। वे मानते थे की संघर्ष और प्रतिद्वंद्ता बहुधा जीव की पूर्णता में रुकावट बन जाती है। शिक्षा और उन्नती का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं  को हटाना है। इनके हट जाने पर मूल ब्र्ह्म भाव स्वयं प्रकाशित हो जाता है। आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में जीतनी बाधायें आति है उन्हें शिक्षा, दीक्षा,ध्यान, धारणा के द्वारा दुर किया जा सकता है। स्वामी अद्वैत वादी थे और उन पर शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का उनके ऊपर गहरा प्रभाव था। स्वामी जी विश्व के सभी धर्मों और दर्शनों को अद्वैत वाद की ओर झुका मानते थे अपने इस समंवयकारी दृष्टिकोण के कारण वे पूर्ण रूप से अद्वैतवादी माने जातेहै।

स्वामी जी का लक्ष्य मानव को विशेष कर आधुनिक भारतीय मानव को कर्म का संदेश प्रदान करना था। इसलिए उनका संदेश था उठो साहसी बनो, विर्यवान बनो। सब उत्तरदायित्व अपने कंधे पर ले लो। यह याद रखो की तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे ही अंदर विद्यमान है अत्येव इस शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो। और अपने हाथों अपनाभविष्य गढ़ डालो। स्वामी मनुष्य को श्रेष्ठतम अवस्था तक पहुँचाने के लिए आश्रम व्यवस्था को उच्चतम बताते हैं। समस्त मानव जाति का और समस्त धर्मों का धर्म-लक्ष्य एक ही है। और वह है भगवान से पूर्ण मिलन इसलिए वे कहतेथे कि हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है उसका चिंतन करो प्रेम ही मानव जीवन का एक सर्वोच्च्य एक मात्र प्रयोजन है।

स्वामी जी के विचार में पतित से पतित व्यक्ति के सुधार की पूरी संभावना है तुम बाधाओं को हटा दो तो ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाएग। हमारा राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। वर्तमान समय में तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाओ और गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाओ की आलस्य से बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। उन्हें यथार्थ अवस्था का परिचय कराओ और कहो भाइयों सब कोई उठो। जागो। अब और कितना सोओगे! कि जाओ उन्हें अपने अवस्था सुधारने की सलाह दो और शास्त्रों की बातों को सरलता पूर्वक समझाते हुए उदात्त सत्त्वों का ज्ञान कराओं और उनके मन में यह बात जमा दो की उनका भी धर्म पर समान अधिकार है। सभी को, चांडाल तक को।

स्वामी जी कहते हैं कि सदियों से ऊँची जाति वाले उनकी सारी शक्तियों को विनष्ट कर दिया है। ये स्त्रियों को बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे। वे प्रत्येक को माँ ,बहन के रूप में पूजते थे। उन्होंने उन्हें गुलामी से छुटकारा दिलाया, परदे से बाहर किया,सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की प्रेरणा दी तथा उनके  शिक्षा ग्रहण करने पर बहुत जोर दिया। वे कहते थे कि उन्नतशील राष्ट्रों ने स्त्रियों को समुचित सम्मान देकर ही महानता प्राप्त  की है। जो राष्ट्र स्त्रियों का आदर नहीं करते वे कभी बड़े नहीं हो सकते, न ही हो पाये और न कभी बड़े हो पायेंगे। वे स्त्रियों को लौकिक तथा त्याग की शिक्षा देकर सीता बनाने का प्रयत्न करना चाहते थे ताकी वे अपना रक्षा वे स्वयं कर सके। स्वामी विवेकानंद दलितों और गरीबों को देखकर बड़े दुखी होते थे। उनको ऊँचा उठाने के लिए और सहायता देने के लिए अपने देश वासियों तथा अन्य मिश्नरियों को प्रेरणा दी। “ आओ हम में से प्रत्येक व्यक्ति दिन और रात उन करोड़ों पद दलित भारतीयों के लिए प्रार्थना करे जो गरीब, पुरोहितों के छल और नाना अत्याचारों द्वारा जकड़े हुए हैं उन्हीं के लिए दिन रात प्रार्थना करो।

वे हिंदू धर्म को विश्व धर्म मानते थे। इसका एक कारण यह है कि हिंदू धर्म में विभिन्न मतों,संप्रदायों और साधना पद्धतियों के लिए समान आदर भाव है। विश्वधर्म सभा में उन्होंने इस संदर्भ में कहा था कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायि होनेमें गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सर्वभौमिकता, दोनों की शिक्षा दी। हमलोग सर्वधर्मों के प्रति सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरण समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। उन्होंने वेदांतिक शिक्षा का प्रचार कर रूढ़ीवादी विचारों को समाप्त किया और सभी धार्मिक विचारों को तर्क की कसौटी पर तौला और हिंदू धर्म को वैज्ञानिक एवं तर्क युक्त सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ा किया। वे वैक्तिकता एवं समाजिकता दोनों के समर्थक थे।

विवेकानंद का शिक्षा दर्शन :- वे मानते थे कि सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण ही है। सारे प्रशिक्षणों का उद्देश्य मनुष्य का विकास करना ही है। जिस अभ्यास से मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रवाह और प्रकाश सयंमित होकर फलदायी बन सके उसी का नाम है शिक्षा। स्वामी जी का मत है हमारे देश को जिस चीज की आवश्यकता है वह है लोहे की मांस-पेशियाँ और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचण्ड इच्छा शक्ति जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रहस्यों को भेद सके और जिसे पाने के लिए समुद्र तल में ही क्यों न जाना पड़े, साक्षात मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते हैं। हम मनुष्य बनाने वाला सिद्धांत ही चाहते हैं। हम सभी शास्त्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते हैं।

  • विवेकानंद का जन्म कब हुआ
  • उनके पिता का नाम
  • उनके माता का नाम
  • किस प्रदेश में जन्म लिया
  • किस शहर में उन्होंने धर्म संसद में भाग लिया
  • उनके गुरु का नाम
  • रामकृष्ण परम्हंस किसके भक्त थे
  • विवेकानंद पर किस दर्शन का प्रभाव था
  • विवेकानंद ने किस मठ की स्थापना की
  • शिकागो धर्मसभा किस सन में हुआ
  • विवेकानंद का स्वर्गवास कब हुआ
  • विवेकानंद मनुष्य में किसका वास मानते हैं
  • शिक्षा दर्शन के माध्यम से मनुष्य का किस प्रकार का विकास चाहते थे।

उनके शिक्षा दर्शन का मूल उद्देश्य मानव जीवन का निर्माण करना है। शिक्षा वह जो मानव जीवन का निर्माण कर उसे फल सिद्धि के लिए सक्षम बनये और अंत

 

स्वामी विवेकानंद का कृतिक एवं व्यक्तित्व

स्वामी विवेकानंद का कृतिक एवं व्यक्तित्व

इस भारत भूमि में ऐसे ऐसे कर्म योद्धाओं का अवतरण देखा है जिन्होंने अपने समय एवं समाज के साथ एक बड़ा हस्तक्षेप ही नहीं किया; बल्कि पूरे विश्व में अपने विचार के माध्यम से विचारों का ऐसा पूंज फैलाया जिन्होंने समाज में बड़े परिवर्तन की एक बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। भारतीय परंपरा में यह गूँजता ही रहा है कि यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत्।

अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाम साधूनां विनाशाय च दुस्कृताम्।

धर्म संस्थापनार्थाय सम्भावमि युगे-युगे॥

अर्थात जब-जब धर्म की हानि हुई है कोई न कोई महापुरुष राम,कृष्ण इसामसीह, मोहम्म्द, गुरुनानक आदि जन्म लेकर इस पृथ्वी पर न केवल समरसता फैलाई है, बल्कि समाज की समस्त कुरुतियों को बदलने के लिए भागीरथ प्रयत्न किया है। इसी में एक विवेकानंद हैं जिन्होंने अल्पायु में अपने विचारों के चकाचौंध से न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया।

स्वामी विवेकानंद ने वेदांत के द्वारा ऐसे नये मानव का निर्माण करना चाहते थे जो पूरे विश्व में शांति, सदभाव, विश्व बंधुत्व की भावना का प्रचार – प्रसार कर सके। उनके हृदय में राष्ट्रनिर्माण की भावना में विश्व निर्माण की भावना भी समाहित है। स्वामी विवेकानंद के चिंतन में जीवन एवं जगत के सभी पहलू के अंकूर मिलते हैं। उनमें एक तरफ मन के परिवर्तन की संकलपना है तथा आत्म उत्थान की भावना है तो दूसरी तरफ पूरे विश्व के समाज सुधार की प्रेरणा और नयी सृष्टि का संकल्प भी है। ऐसे स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के प्रसिद्ध दत्त परिवार में 12 जनवरी 1863 ई. में हुआ।  इनका वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ था तथा पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था। जो बंगाल के सुपसिद्ध वकिल थे। इनकी माता श्रीमती भुनेश्वरी देवी धर्म, परायणा, साध्वी, बुद्धिमती एवं साहसी महीला थीं। इनके बाबा श्री दुर्गाचरण दत्त बहुत ही सज्जन, नेक और अच्छे इंसान थे, जो फारसी, संस्कृत एवं कानून के बहुत बड़े ज्ञाता थे। स्वामी जी पर अपने माता-पिता एवं दादा का बहुत प्रभाव था। कहा जाता है कि प्रारंभ से ही महापुरुषों के लक्षण दिखने लगते हैं । होनहार विरवान के होत चिकने पात,बचपन से ही विवेकानंद को पूजा-पाठ एवं ईश्वर आराधना में बड़ा मन लगता था।आराधना में वे इतनी तल्लीन हो जाते थे की भौतिक जगत से पूरी तरह कट जाते थे।

इनके पिता की बड़ी लालसा थी की उनका बेटा वकील बने और उनकी परंपरा को आगे बढाये\उनके पिता सहृदय गृहस्थ और एक सामाजिक प्राणी थे और अपने पुत्र में इन्हीं का विकास देखना चाहते थे, लेकिन शायद परमात्मा  को यह मंजूर नहीं था। इनकी शिक्षा –दीक्षा घर पर ही हुई; क्योंकि प्राथमिक शिक्षा अपरिहार्य कारण से नियमित   पाठशाला में नहीं हो सकी। इनके पिता ने इनके पठन-पाठन की घर में व्यवस्था कर दी, सात वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने संपूर्ण व्याकरण कंठस्थ कर लिए तथा रामायण एवं महाभारत के लंबे-लंबे प्रसंगों के अपने स्मृति में बसा लिया।  सात वर्ष की आयु में ही कॉलेज में भरती हो गये । इन्होंने पढने के साथ-साथ खेल-कूद , व्यायाम, संगीत,नाटक आदि विषयों में रूचि ली और सभी में उनकी विशेष दक्षता समय-समय पर प्रकट होती रही। सोलह वर्ष की आयु में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की और प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया । बाद में एसेम्बली इंस्ट्रीक्शन में पढने गये। अध्ययन में उनकी प्रतिभा सदैव सर्वोच्च रही।  उनकी इस प्रतिभा को देखकर ड्ब्लू डब्लू हेस्टे ने एक बार कहा कि…

“I have travelled far and wide but I have never come across a lad of his talent and possibilities. He is bound to make his mark in life”

प्राचार्य विलियम हेस्टी की प्रेरणा से रामकृष्ण परंहस के साथ 1881 में दक्षिनेश्वर मंदिर कलकता में उनकी भेंट हुई, जो इनकी जीवनधारा को बदलने में अहम योगदान दिया। रामकृष्ण परंहस उन्हें देखते ही पहचान लिया और कहा “मैं जानता हूँ आप स्वयं नारायण के अवतार है जिन्होंने मानवता का उद्धार करने के लिए इस पृथ्वी पर जन्म लिया है और यही से उन दोनों में गुरु शिष्य का संबंध विकसित हुआ। नरेंद्र ने पहला सबाल किया, क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है? रामकृष्ण ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया।

“God can be realized one can see and talk to him as I am doing with you But who cares to do so.”

कुछ समय बाद नरेंद्र के पिता का देहांत हो गया और गृह संचालन की पूरी जिम्मेदारी उनपर आ गयी, लेकिन वे घबराये नहीं। नरेंद्र की ईश्वर के प्रति आस्था बढती गयी। एक दिन उनको प्रतीत हुआ कि ईश्वर का भी अस्तित्व है क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही कठिनाईयों का साहस के साथ सामना किया जा सकता है। लगातार रामकृष्ण के सानिध्य में धीरे-धीरे गृहस्थ से सन्यांसी बना दिया। सन 1886 में रामकृष्ण के मृत्यु के पश्चात नरेंद्र ने उनकी शिक्षा का प्रचार –प्रसार अपने जीवन का मूल मंत्र बनाया। नरेंद्र आरंभ से जिज्ञासु थे वे हर बात में सत्य का अनुसंधान करने लगते थे। अपने छात्र जीवन से ही उनकी रूची शास्त्रों, साधु संतों और धर्म आलोचना आदि में अधिक थी। अपने इसी स्वभाव के कारण विश्व उनके लिए एक जिज्ञासा का विषय बनता चला गया और वे निरंतर जीवन पर्यंत सत्य की खोज में लगे रहे। जीवन के इस सोच के विकसित होने के कारण उन्होंने यह संकल्प व्यक्त किया कि हमें जीवन की प्राप्ति तभी हो पाती है जब पूरी लगन, निष्ठा और समर्पण के साथ किसी के लक्ष्य के लिए लगते हैं। उन्होंने यह तय कर लिया था कि जीवन की मुक्ति सन्यास में है इसलिए एक जगह उन्होंने कहा है कि “मैं समझता हूँ कि सन्यास ही मानव जीवन का सर्वोच्य आदर्श होना चाहिए। नित्य परिवर्तनशील अनित्य संसार के पीछे सुख की कामना के पीछे दौड़ने की अपेक्षा उस अपरिवर्तनशील सत्यम शिवम सुंदरम को पाने के लिए प्राणार्पन से कोशिश करना ही सौ गुणा श्रेष्ठ है।“ (विवेकानंद साहित्य खण्ड -7, पृष्ठ -234)

नरेंद्र के स्वभाव को देखते हुए रामकृष्ण ने एक बार कहा था कि “जिस दिन नरेंद्र का जीवन दु:खों, काँटों और विपतियों से सन्निकट होगा उसके चरित्र का अभिमान विचलित होकर अनंत करूणा में परिवर्तित हो जाएगा। उसके अहम जो दृढ़ विश्वास है वह तमाम निराश आत्माओं में उस विश्वास और आस्था को उत्पन्न करने का साधन बनेगा, जिसे उन्होंने थोड़े समय में खो दिया है। शक्तिशाली आत्मनियंत्रण के उपर आधारित उनके व्यवहार की जो स्वच्छंदता है वो दूसरे की आँख में आत्मा की सच्ची स्वतंत्रता बन कर चमकेगी। (समकालीन भारतीय दर्शन, डॉ. श्रीमती लक्ष्मी सकसेना,पृष्ठ -90)

1886 ई. में श्री रामकृष्ण परम्हंस का मृत्यु हुआ। मृत्यु के पूर्व उन्होंने नरेंद्र का स्पर्श करते हुए अपना सर्वस्व उतराधिकार उन्हें दिया और कहा कि बेटा आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर बन गया। स्पर्श के साथ ही नरेंद्र को समाधि के आनंद की अनुभूती हुई। अब नरेंद्र नरेंद्र न रह कर स्वामी विवेकानंद हो गये और उनके जीवन में हमें ज्ञान, भक्ति, कर्म और वैराग्य का अपूर्व सम्न्वय मिलने लगा। 1888 ई. में स्वामी विवेकानंद जी हाथ में कमंडल लिए सन्यासी वेशभूषा में उतर भारत के प्रमुख स्थानों जैसे-वाराणसी, हरिद्वार , वृंदावन, आगरा, अयोध्या गये। बाद में हिमालय कुछ समय रहने के बाद बिहार के प्रमुख नगरों, राजस्थान में जयपुर,अलवर्। गुजरात में अहमदबाद, भुज,सोमनाथ, द्वारका,पोर्वंदर, माहवीर, पाली टाना, काठियावाड़ ।महाराष्ट्र में बम्बई ,पुणा, आंध्रप्रदेश में कोचिन, त्रिवेंद्रम, तमिलनाडु में मदुरै एवं कन्याकुमारी की यात्रा की। इस यात्रा भ्रमण का विवेकानंन्द के अनुभव संसार में कई अनुभूतियाँ जाग्रत हुए। उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों के रीति-रिवाज, आचार-विचार आदि का परिचय पाया। इस परिचय से स्वामी विवेकानंद को भारत के बारे में जो ज्ञान प्राप्त हुआ वो साधारण न था उसे उन्हें भारत की जनता के निर्धंता,अशिक्षा तथा कुसंस्कारों आदि का पता लगा।

हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा में स्वामी जी ने देखा की धर्म, देश भारत वर्ष दुभिक्ष, महामारी, दु:ख, रोग, शोक से जर्जरित है। धनिक लोग गरीबों का चूसकर बिलास की पिपासा को तृप्त कर रहे हैं। आहार से भुखे –प्यासे  लोग भुमंडल पर युग युगांतर की निराशा लिए अन्न के लिए तरस रहें है। शिक्षा के अभाव के कारण पुरोहित वर्ग धर्म से भय्भीत कर रहे हैं। धर्म के बारे में अज्ञान होने के कारण भारतीयों के हृदय में न आशा है बल है, इन सबकों देखकर  स्वामी का हृदय द्रवीभूत हो गया। और उन्होंने कन्याकुमारी के पास शीलासन पर उपर्युक्त बुराई को दूर करने का संकल्प लिया।

स्वामी जी का विश्वास था बभुसितों को शिक्षा नहीं दी जा सकती और उसके बिना धर्म की प्राप्ति नहीं हो  सकती। रामकृष्ण कि मौलिक शिक्षा थी कि सभी धर्म सत्य है, और ईश्वर की उपलब्धी की उपाय मात्र है।

स्वामी विवेकानंद के द्वारा की यही सम्पति थी। उनकी पीठ पर व्यापीत युग-युग की संस्कृति का वरदहस्त था।

विश्व संसद और पाश्चात देशों की यात्रा

31 मई 1893 ई. को स्वामी विवेकानंद अपने गुरू की लोक कल्यायणी इच्छा को लेकर भारत से अमेरिका के तरफ प्रस्थान किया और लेभर, सिंगापुर,हांगकांग, कैण्टन और नागाशाकी होते हुए जुलाई मध्य तक शिकागों पहुँच गये। इस यात्रा में स्वामी जी ने एशिया की सांस्कृतिक एकता और उसमें भारतीय अनुदान की अनुपम झाँकी प्रस्तुत की, चीन में उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की अमूल्य पाण्डुलीपियाँ भि लि जिनका उन्होंने अपने किया । जापान में उन्हें पवित्र सूत्रों का श्लोक मिला इन सब वस्तुओं को देखकर उन्हें पूर्ण विश्वास हो ग्या कि एशिया के आध्यात्मिक एकता में भारत का कितना महान योगदान रहा है। यहाँ पहुँचकर अमेरिका की शक्ति , धन, सृजनात्मक प्रतिभा एवं समृद्धि को देखकर वे आश्चर्य चकित हो उठे। जिस उद्देश्य से वे अमेरिका गये, उस धर्म सभा में नियमानुसार उन्हें प्रवेश नहीं मिल पा रहा था, लेकिन प्रोफेसर जे.एय.राइट के सहयोग से अंतत: उन्हें धर्म संसद में प्रवेश मिला, 11 सितंवर सोमवार 1893 में कोलनगर हॉल में धर्म संवाद प्रारंभ हुआ। भारत से आये प्रतिनिधियों में ब्रह्म समाज के प्रताप चंद्र मजुमदार और नागरकर गाँधी जैन समाज के वीर चंद, कियोसफी के ओर से एनी बेसेंट एवं चक्रवर्ती तथा स्वामी विवेकानंद आदि हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

विवेकानंद ने अपने वक्तव्य की शुरुआत करते हुए कहा कि अमेरिकावासियों भाईयों एवं बहनों । उनके इस संबोधन को सुनकर पूरी सभा दो मिनट तक करतल ध्वनि करता रहा। स्वामी जी ने अपना भाषण हिंदू धर्म से आरंभ किया। उन्होंने हिंदू धर्म को सभी धर्मों का जनक बताया; क्योंकि इसी धर्म ने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया। अपने मत को पुष्टि के लिए उन्होंने गीता के पदों के उद्धरणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म में साम्प्रादायिकता , संकीर्णता, धर्मांधता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार स्वामी जी ने इस महान आध्यात्मिक धर्म महासभा में वेदांत के विजय का शंखनाद किया। उन्होंने अमेरिका इंग्लैंड आदि देशों को भारतीय दर्शन के मौलिक सिद्धांत की जानकारी दी। यह विश्वविद्यालय के लिए एक नया संदेश था। इस कारण अंधकार में भटकते हुए मनुष्य को एक अभिनव ज्ञान का मार्ग प्रशस्त हुआ।

स्वामी जी ने अमेरिका निवासियों को हिंदुओं के बारे में बताया कि हिंदू लोग तुम्हें पापी कभी नहीं कहते । तुम सब अमृत की संतान हो। इस पृथ्वी पर पाप नाम की कोई चीज नहीं है। यदि कोई पाप है तो वह है मनुष्य को पापी कहना। तुम सर्वशक्तिमान आत्मा ही शुद्ध मुक्त महान है। उठो, जागो और स्वंय को प्रकट करने की चेष्टा करो” (डॉ. सत्येंद्रनाथ मजुमदार, विवेकानंद चरित्र, पृष्ठ- 110) उनको इस मनोवैज्ञानिक व्याख्यान का चुम्बकीय प्रभाव पूरे अमेरिका पर पड़ा और अमेरिकावासी उनके व्यक्तित्व से अभिभूत हो गये। अमेरिकन राष्ट्र विवेकानंद की प्रशंसा से मुखरित हो उठा और हर अमेरिकावासी उनके सानिध्य के लिए उत्सुक हो उठा। न्यूयार्क से प्रकाशित हेराल्ड अखबार ने इस अवसर पर लिखा कि शिकागो धर्मसभा में विवेकानंद ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि धर्म सभा में इस प्रकार के अमुमन राष्ट्र भारत वर्ष में हमारे धर्म प्रचारकों को भेजना मूर्खता मात्र है। इस संदर्भ में वास्टन इवनिंग ट्रेंसलिस्ट में लिखा था। “ He is really a great man, noble, simple, sincere, and learned beyond comparison  with most of our scholars.”

स्वामी विवेकनंद ने धर्मसम्मत संसद में अपनी वकपटुता तथा ज्ञान से वेदांतिक ओजस्वी भाषणों से अमेरिकावासियों को भारत के प्रति प्रेम करने के लिए मजबूर कर दिया । उन्हें यह सोचने के लिए विवश कर दिया भारत भी हमारे जैसा ही एक देश है जहाँ हमारे जैसे मानव निवास करते हैं उनका धर्म, रीति रिवाज हमारे धर्म और ईश्वर जैसा ही है। 150 वर्षों से ईसाइ धर्म प्रचारक हिंदुत्व की जो निंदा फैला रहे थे उस पर रोक लगा दी और सारा पश्चिमी लोक स्वामी के मुख से हिंदुत्व का आख्यान सुन कर गद-गद हो रहा है। तब हिंदू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव को महसूस करने लगे। अमेरियत के रंग में रंगे भारतीय ने जब देखा कि यूरोप और अमेरिका भी हिंदूत्व की ऊँचाईयों को समझने लगा तो वे भी इसकी ऊँचाई  महसूस करने लगे । इस प्रकार हिंदुत्व को बोलने के लिए अंग्रेजी भाषा ईसाई धर्म एवं यूरोपिय बुद्धिवाद की छवी से जो तूफान उठा था वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे वक्ष से टकराकर लौट गया।

धर्म सभा पर अब अपना, मत प्रस्तुत करते हुए सिस्टर निवेदिता लिखती है कि “ विश्वधर्म सभा के समक्ष स्वामी के अभिभाषण के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण प्रारंभ किया तो विषय था, हिंदुओं का धार्मिक विचार किंतु जब उसका अंत किया तब हिंदु धर्म की सृष्टि हो चुकी थी।

धर्म सभा के विज्ञान विभाग के अवीन मैरध्यक्ष मिस्टर मैरीन ने लिखा कि धर्म संसद पर एवं सामान्य तौर पर अमेरिकी जनता पर जितनी प्रभाव हिंदूधर्म का पड़ा उतना अन्य किसी धर्म का नहीं। हिंदू धर्म के सबसे महत्व पूर्ण एवं विशिष्ट प्रतिनिधि थे स्वामी विवेकानंद जी जो वास्तवमें धर्म संसद में निसंदेह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावी व्यक्ति थे, सभी अवसरों पर, अन्य किसी ईसाई वक्ता की अपेक्षा अधिक सम्मान एवं सराहना मीली । कट्टर ईसाई ने भी उनके संबंध में यह कहा कि यह मनुष्यों में राजा हैं।

विवेकानंद से गहरे प्रभावित डॉ. एनी वेसेंट ने लिखा है कि, “एक प्रभावी व्यक्तित्व …. पीले एवं नारंगी वस्त्रों में सुशोभीत , शिकागो के बोझील परिवेश में भारत को सूर्य की तरह चमकने वाला सिंह सा मस्तक, अंतभेदी आँखे , संवेदंशील अओज, फूर्तिली और अप्रत्याशित गति …. स्वामी विवेकानंद की छाप कुछ इसी तरह भी मुझ पर पड़ी। लोग उन्हें योद्धा सन्यासी कहतेहैं और वे कुछ गलत नहीं कहते, क्योंकि उनकी पहली छाप सन्यासी की अपेक्षा योद्धा की अधिक थी। उनके जाति में अपने देश एवं जाति का अभिमान कूट-कूट कर भरा था। भारत का यह दूत ,उसकायह पुत्र उसे लज्जित होने देने वाला नहीं था। वह अपनी मातृभूमि का संदेश लेकर आया,उसके नाम पर बोला और इस संदेश वाहक ने अपनी शाही भूमि की गरिमा का स्मरण किया, जहाँ से वह आया था। उसकी वाणी से मुग्ध हो विशाल जन समुदाय उसके शब्दों पर कान लगाये रखता है कि कहीं एक भी अक्षर न छूट जाय।  एक भी लय भूल न जाए। एक व्यक्ति उस दिन बोल उठा, और हम उस देश की जनता के लिए मिशनरी भेजते है। उचित तो यह होगाकि वे हमारे पास अपनी मिशनरी भेजे।

विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार बिल ड्यूरेंट लिखते हैं कि वे (स्वामी जी) वर्ल्ड फेयर के उपलक्ष्य में आयोजित धर्मों के पार्लियामेंट में उपस्थित हुए और अपने महीमामंडीत व्यक्तित्व , सभी धर्मों के एकता में अपनेसंदेश एवं मानव से वही ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ उपासना है, ऐसा अपनी सरल नैतिकता के द्वारा सभी को वशीभूत कर लिया। कट्टर पादरियों ने पाया कि वे लोग एक ही-धर्म का सम्मान कर रहे है। भारत लौटकर अपने देशवाशियों के सम्मुख विवेकानंद ने ऐसे शक्ति सम्पन्न धर्म का उपदेश दिया जैसा वैदिक काल से लेकर अभी तक किसी ने उन्हें नहीं दिया था। जनसाधरण उनके भाव को किस प्रकार ग्रहण करेगा इसकी परवाह नहीं करते थे। जो सम्प्रदाय उनके विरोधी थे वे ही बाद में उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंगलैंड में भी उनके सहयोगी एवं प्रचारक बने। इंग्लैंड में भी उनके व्यक्तित्व का दूरगामी प्रभाव पड़ा। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि जब तक प्राच्य प्रवधि पाश्चात-ज्ञान का  संगम नहींहोगा तब तक मानव कल्याण संभव नहीं दिखना। वे वेदांत और विज्ञान का बिज समंवय चाहते थे। स्वामी जी जानते थे, जब तक हिंदू धर्म कि बौद्धिक एवं वैज्ञानिक पद्धति प्रस्तुत नहीं की जायगी तब तक वह पाश्चात जगत को स्वीकार नहीं हो सकती है। इसी उद्देश्य हेतु उन्होंने अपने पाश्चात शिष्यों को भारत भेजा और भारतीय शिष्यों को पाश्चात भेजा। 1897 में भारत लौटने पर उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। धीरे-धीरे हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के पूनर्जागरण और उन्नयन उनके विशेष योगदान की सर्वत्र चर्चा होने लगी । हिंदू धर्म के महान आचार्य के रूप में उनका स्वागत होने लगा। उन्होंने अपने संघ के माध्यम से वेदांत की शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप देने लगे। उनका अद्वैत संघ सांस्कृतिक उन्नयन एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण के कार्य में लगी थी। स्वामी विवेकानंद जी की देश की सबसे बड़ी देन है। स्वामी जी ने डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकास वाद का गहरा अध्ययन किया था उनका स्पष्ट मान्यता था कि डार्विन  का विकास वाद ठीक होने पर भी उसके निष्कर्ष अंतिम नहीं है। वे मानते थे की संघर्ष और प्रतिद्वंद्ता बहुधा जीव की पूर्णता में रुकावट बन जाती है। शिक्षा और उन्नती का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं  को हटाना है। इनके हट जाने पर मूल ब्र्ह्म भाव स्वयं प्रकाशित हो जाता है। आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में जीतनी बाधायें आति है उन्हें शिक्षा, दीक्षा,ध्यान, धारणा के द्वारा दुर किया जा सकता है। स्वामी अद्वैत वादी थे और उन पर शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का उनके ऊपर गहरा प्रभाव था। स्वामी जी विश्व के सभी धर्मों और दर्शनों को अद्वैत वाद की ओर झुका मानते थे अपने इस समंवयकारी दृष्टिकोण के कारण वे पूर्ण रूप से अद्वैतवादी माने जातेहै।

स्वामी जी का लक्ष्य मानव को विशेष कर आधुनिक भारतीय मानव को कर्म का संदेश प्रदान करना था। इसलिए उनका संदेश था उठो साहसी बनो, विर्यवान बनो। सब उत्तरदायित्व अपने कंधे पर ले लो। यह याद रखो की तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे ही अंदर विद्यमान है अत्येव इस शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो। और अपने हाथों अपनाभविष्य गढ़ डालो। स्वामी मनुष्य को श्रेष्ठतम अवस्था तक पहुँचाने के लिए आश्रम व्यवस्था को उच्चतम बताते हैं। समस्त मानव जाति का और समस्त धर्मों का धर्म-लक्ष्य एक ही है। और वह है भगवान से पूर्ण मिलन इसलिए वे कहतेथे कि हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है उसका चिंतन करो प्रेम ही मानव जीवन का एक सर्वोच्च्य एक मात्र प्रयोजन है।

स्वामी जी के विचार में पतित से पतित व्यक्ति के सुधार की पूरी संभावना है तुम बाधाओं को हटा दो तो ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाएग। हमारा राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। वर्तमान समय में तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाओ और गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाओ की आलस्य से बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। उन्हें यथार्थ अवस्था का परिचय कराओ और कहो भाइयों सब कोई उठो। जागो। अब और कितना सोओगे! कि जाओ उन्हें अपने अवस्था सुधारने की सलाह दो और शास्त्रों की बातों को सरलता पूर्वक समझाते हुए उदात्त सत्त्वों का ज्ञान कराओं और उनके मन में यह बात जमा दो की उनका भी धर्म पर समान अधिकार है। सभी को, चांडाल तक को।

स्वामी जी कहते हैं कि सदियों से ऊँची जाति वाले उनकी सारी शक्तियों को विनष्ट कर दिया है। ये स्त्रियों को बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे। वे प्रत्येक को माँ ,बहन के रूप में पूजते थे। उन्होंने उन्हें गुलामी से छुटकारा दिलाया, परदे से बाहर किया,सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की प्रेरणा दी तथा उनके  शिक्षा ग्रहण करने पर बहुत जोर दिया। वे कहते थे कि उन्नतशील राष्ट्रों ने स्त्रियों को समुचित सम्मान देकर ही महानता प्राप्त  की है। जो राष्ट्र स्त्रियों का आदर नहीं करते वे कभी बड़े नहीं हो सकते, न ही हो पाये और न कभी बड़े हो पायेंगे। वे स्त्रियों को लौकिक तथा त्याग की शिक्षा देकर सीता बनाने का प्रयत्न करना चाहते थे ताकी वे अपना रक्षा वे स्वयं कर सके। स्वामी विवेकानंद दलितों और गरीबों को देखकर बड़े दुखी होते थे। उनको ऊँचा उठाने के लिए और सहायता देने के लिए अपने देश वासियों तथा अन्य मिश्नरियों को प्रेरणा दी। “ आओ हम में से प्रत्येक व्यक्ति दिन और रात उन करोड़ों पद दलित भारतीयों के लिए प्रार्थना करे जो गरीब, पुरोहितों के छल और नाना अत्याचारों द्वारा जकड़े हुए हैं उन्हीं के लिए दिन रात प्रार्थना करो।

वे हिंदू धर्म को विश्व धर्म मानते थे। इसका एक कारण यह है कि हिंदू धर्म में विभिन्न मतों,संप्रदायों और साधना पद्धतियों के लिए समान आदर भाव है। विश्वधर्म सभा में उन्होंने इस संदर्भ में कहा था कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायि होनेमें गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सर्वभौमिकता, दोनों की शिक्षा दी। हमलोग सर्वधर्मों के प्रति सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरण समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। उन्होंने वेदांतिक शिक्षा का प्रचार कर रूढ़ीवादी विचारों को समाप्त किया और सभी धार्मिक विचारों को तर्क की कसौटी पर तौला और हिंदू धर्म को वैज्ञानिक एवं तर्क युक्त सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ा किया। वे वैक्तिकता एवं समाजिकता दोनों के समर्थक थे।

विवेकानंद का शिक्षा दर्शन :- वे मानते थे कि सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण ही है। सारे प्रशिक्षणों का उद्देश्य मनुष्य का विकास करना ही है। जिस अभ्यास से मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रवाह और प्रकाश सयंमित होकर फलदायी बन सके उसी का नाम है शिक्षा। स्वामी जी का मत है हमारे देश को जिस चीज की आवश्यकता है वह है लोहे की मांस-पेशियाँ और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचण्ड इच्छा शक्ति जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रहस्यों को भेद सके और जिसे पाने के लिए समुद्र तल में ही क्यों न जाना पड़े, साक्षात मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते हैं। हम मनुष्य बनाने वाला सिद्धांत ही चाहते हैं। हम सभी शास्त्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते हैं।

  • विवेकानंद का जन्म कब हुआ
  • उनके पिता का नाम
  • उनके माता का नाम
  • किस प्रदेश में जन्म लिया
  • किस शहर में उन्होंने धर्म संसद में भाग लिया
  • उनके गुरु का नाम
  • रामकृष्ण परम्हंस किसके भक्त थे
  • विवेकानंद पर किस दर्शन का प्रभाव था
  • विवेकानंद ने किस मठ की स्थापना की
  • शिकागो धर्मसभा किस सन में हुआ
  • विवेकानंद का स्वर्गवास कब हुआ
  • विवेकानंद मनुष्य में किसका वास मानते हैं
  • शिक्षा दर्शन के माध्यम से मनुष्य का किस प्रकार का विकास चाहते थे।

उनके शिक्षा दर्शन का मूल उद्देश्य मानव जीवन का निर्माण करना है। शिक्षा वह जो मानव जीवन का निर्माण कर उसे फल सिद्धि के लिए सक्षम बनये और अंत

 

Gold nanoparticles

Gold nanoparticles (GNPs) are a promising technology with applications in a wide range of fields including catalysis, electronics, materials science, and healthcare. They are of great interest to researchers because of their unusual optical, electronic, and chemical properties.

They can also be easily synthesized in a variety of shapes, including spheres, rods, and stars, with sizes ranging from 1 – 100 nm. They are produced as a suspension – the particles are suspended in a solvent, most often water.

Unique Optical Properties

One of the most useful optical properties of GNPs is that they change color readily, depending on their size, shape, and charge. This makes them, among other things, excellent labels for colorimetric detection of biomolecules.

These optical properties derive from an effect called surface plasmon resonance. Like all metals, gold contains free-moving electrons. When light hits the surface of a nanoparticle, these free electrons interact with the electric fields of the light rays and produce oscillations of charge that resonate with the wavelength of visible light.

The result is that GNPs absorb and reflect light at certain wavelengths, depending on their size, shape and surface chemistry.

For example, small (around 30 nm) GNPs absorb light in the blue-green portion of the spectrum (around 450 nm) and reflect red light (around 700 nm), so they are a rich red color.

As particle size increases, solutions become pale blue or purple as the red light is absorbed and blue light is reflected, until most visible wavelengths are reflected, at which point the solution is translucent.

Applications

Binding Properties

Another key property of GNPs is that they bind strongly to a range of molecules. This means that they can be coated with all kinds of molecules, such as polymers or biological recognition compounds, and their surfaces are tailored for specific applications.

For example, by coating GNPs with antibodies that bind to specific biomarkers, then measuring how the nanoparticles absorb light, the technology could be used to diagnose cancers and infectious agents.

Biomedical Applications

GNPs are ideally suited for biomedical research because they are biologically inert and generally considered to be non-toxic. There are four main areas of focus: medical imaging, diagnosis, drug delivery and targeted killing of cells.

Diagnostics

Gold is a popular choice for diagnostics because it binds strongly to short, single strands of RNA or DNA (oligonucleotides) and changes color easily. By coating GNPs with oligonucleotides, they can be used to capture and identify genetic sequences that can be linked to molecules such as bacteria. Gold nanoparticles are also common in lateral flow immunoassays, a common household example being the home pregnancy test.

Drug Delivery

Because it is easy to attach molecules to gold, the particles can act as drug delivery vehicles, carrying drugs inside tumors, for example. Nanoparticles get trapped in the porous network of blood vessels that feed a tumor and accumulate there. When light shines on them, they absorb near-infrared wavelengths that pass through tissue without causing harm and start generating heat. This heat can kill cancer cells or release drugs from carriers.

Another approach is to build scaffolds out of GNPs and then arrange DNA or RNA around them (called spherical nucleic acids, or SNAs). They pass easily through the skin’s top layer – offering the potential for treatments for melanoma and other skin conditions – and are also able to cross the blood–brain barrier, so they could be used to target brain tumor cells.

Electronics, Food Science and Other Applications

Apart from life sciences, GNPs can be used in many other areas. These include in electronics as conductors and connectors in products such as printable inks and electronic chips; and in a variety of sensors. For example, a colorimetric sensor based on gold nanoparticles can identify if foods have started to go off

Other methods, such as surface enhanced Raman spectroscopy, rely on gold nanoparticles as substrates to enable the measurement of vibrational energies of chemical bonds. This technique could be used to detect pollutants and other molecules.

Although gold in bulk is a poor catalyst, it’s a different story for GNPs, which are proving to be important catalysts in fundamental research, in green chemistry where room temperature conversion of biomass and pollutants are crucial, and for fuel cell applications.

For example, GNPs coated onto semiconductor metal oxides catalyze the oxidation of carbon monoxide at relatively low temperatures. In fact, gold catalysts can promote many reactions, at lower temperatures and with higher selectivity than other metal catalysts.

Other examples include the selective oxidation of propylene, alcohols and polyols; selective hydrogenation; and hydrochlorination.

 

Suppliers for the Life Sciences Industry

There are many companies operating globally to serve the life sciences market. These include Cytodiagnostics, Sigma-Aldrich, BBI Solutions and Nanosphere.

Sigma-Aldrich, in conjunction with Cytodiagnostics, a biotech company based in Ontario, Canada, offers a broad portfolio of gold nanoparticles geared specifically for high-tech applications within life science and materials science. GNPs are available in sizes ranging from 5 – 400 nm in diameter with numerous surface functionalities in a variety of solvent compositions.

While spherical gold nanoparticles are traditionally made using reducing agents such as sodium citrate or sodium borohydride, Cytodiagnostics has a propriety process and formulation to prepare highly spherical gold nanoparticles, without harsh reducing agents. They claim that their proprietary protocols produce particles with uniform shapes and narrow size distributions.

The UK company BBI Solutions offers a range of particle sizes from 2 – 250 nm for a range of applications. BBI says its unique manufacturing technique allows the production of large batches of gold to a high level of reproducibility of size, dispersion, and shape. It claims its gold manufacturing technique guarantees: consistency; high stability; scalability; and quality.

US company Nanosphere, now part of Luminex Corporation, has developed a detector called Verigene based on GNPs coated with oligonucleotides to identify a dozen bacteria known to cause infection. In some cases, it can do this in 2 – 3 hours. Delivery of this time-critical information enables clinicians to provide targeted patient care more quickly than waiting for the results of cultured samples. Verigene is designed to target infections in the bloodstream, respiratory tract, and gastrointestinal tract.

The Future for Life Sciences Applications

Cancer therapy continues to be a major area of interest. An array of approaches are under investigation. These include delivering cancer medication, such as tumour necrosis factor, using GNPs (AstraZeneca/CytImmune); developing SNAs to pass from the bloodstream into the brain to treat brain tumours (AuraSense Therapeutics) and other solid tumours; coating glass shells with GNPs to improve the aim of lasers used to image and zap tumours (Nanospectra Biosciences).

These nanoshells could also serve as a delivery vector for gene silencing (when a gene is switched off). They can carry specific strands of DNA oligonucleotides or RNA molecules that are released when they are exposed to ultraviolet light, and turn off expression of a gene.

Much work continues to focus on diagnostics. Examples include GNP strip tests to detect certain heart attacks by identifying cardiac troponin I (cTn-I), found at several thousand times higher in patients experiencing myocardial infarctions (New York University Polytechnic School of Engineering); flu tests consisting of GNPs coated with antibodies that bind to specific strains of the flu virus (University of Georgia); and a new device that can spot the volatile organic compounds in exhaled breaths of patients with lung cancer (University of Colorado).

References and Further Reading

Gold Nanoparticles: Properties and Applications

Gold Nanoparticle Products

Gold Nanoparticles

Nanosphere

Biomedicine: The New Gold Standard

Targeted Photodynamic Therapy of Breast Cancer Cells Using Antibody-phthalocyanine-gold Nanoparticle Conjugates

Gold Nanoparticles Market Size to Exceed USD 8 Billion by 2022

Graphene and its derivatives represent an exciting area of chemical discovery. With it’s range of exciting properties graphene based technology has the potential to transform our lives.

Graphene oxide membranes have been receiving attention for their extremely powerful separation abilities and the ease at which it can be modified, allowing for membrane permittivity to be fine-tuned. These membranes show the potential to be used for water purification, ‘green’ gas purification and greenhouse gas capture.

AZoNano spoke to Dr. Yang Su, of the University of Manchester’s prestigious National Graphene Institute, about the work he, and the rest of the team he is part of,  are conducting on these revolutionary membranes.

Why is graphene oxide a powerful candidate for use in next-generation membranes?

Next-generation membranes need to be highly selective, with a high permeability to a select few molecules, whilst also being inexpensive and stable enough for wide use. Graphene oxide shows the potential to be strong in all of these areas.

This is because the physical structure of graphene oxide sheets lends itself easily to being used as a membrane.

The structure of graphene oxide (GO). GO has oxidative ‘defects’ which break the perfect strucutre of graphene. Whilst this means GO is not as conductive as graphene the holes resulting from these defects make it perfect for use in membrane technology.

There are numerous pores inside membranes. It is the shape and size of these pores that defines the selectivity and permittivity of a membrane. Whereas the identity of the materials used to construct the membrane and the way in which it is processed determines its stability and cost.

Graphene oxide (GO) membranes consist of many layers of two dimensional graphene oxide layers stacked on top of each other to give a laminate of two dimensional GO sheets. These stacked sheets have interconnected channels running through them which act as the membranes pores.

The pores are uniform in size and only 0.9 nm in width. This small width means the membrane is highly selective as only ions and molecules smaller than 0.9 nm can permeate through. Any ions or molecules larger than 0.9 nm are prevented from passing through the membrane by a process called physical extrusion.

The channels inside the GO membrane can be modified with different methods based on what type of membrane is required. Modifying the membrane channels allows membrane permeability to be fine-tuned meaning certain compounds and ions can be selected in such a way that the membrane is highly permeable to them.

Additionally, unlike polymer membranes, GO membranes are more chemically inert, which means they have a longer service lifetime.

Graphene oxide is not as expensive as pure graphene and it can, in fact, be made easily using only graphite powder and some inexpensive chemistry which could even be carried out at home. (though I wouldn’t recommend it!)

This high selectivity coupled with a low cost and long operational lifetime is why there is so much interest in GO advanced membrane technology.

An image of multilayer graphene. Sheets in GO membranes are organised in a similar fashion. Layered one over another to give a laminate. Shutterstock | Bessarab

Can unadulterated, pure graphene be used for this purpose?

Pure graphene is highly impermeable. Graphene will occasionally be permeable to very small particles such as protons (one of the components of an atomic nucleus) but this is only under very specific conditions that you wouldn’t find outside of a lab.

Any matter larger than a proton, such as liquids and gases, will be completely impermeable to graphene. However, this impermeability has its own uses – for example graphene would work very well as a barrier or protective membrane.

As pure graphene is completely defect free there are no gaps in its structure making it completely impervious to all but the smallest of particles. Shutterstock | ktsdesign

What molecules and liquids are GO membranes capable of separating?

The unique pore structure of GO membrane provides a good platform for us to play with. By changing the structure of the membrane we can adjust the membranes permeability with respect to different molecules.

Depending on the membrane structure they can be used for gas separation, such as hydrogen purification, CO2 capture, or gas drying by removing water.

The GO membranes can also be used for the separation of aqueous mixtures, such as in the dehydration and purification of organic solvents. This technology has the potential to be used to separate certain solute/ions from solvents, which could potentially be used for water purification.

How can the membrane separation properties be modified? Can the membrane be functionalised or the pore size controlled in other ways?

The membrane separation properties can be modified using many different methods with the main methods being chemical functionalization and physical pore size control.

Attaching external molecules to the sheets by chemical functionalization can be used to expand the pore sizes. This results in faster transport through the membranes and different selectivities.

In contrast, our recent results show that by removing oxygen atoms from GO sheets we could induce the channels to collapse. This type of GO membrane could be used as a barrier or protective coating for the packaging industry.

How do you see this technology impacting the real world?

Due to its amazing separation properties we expect this technology to have a huge impact in the fields of energy reduction and environmental conservation.

For example, this technology could be used for the dehydration and purification of biofuels. Currently water is produced as a side product when biofuels are produced. This water damages the biofuel yield and the final product quality, and its removal is difficult. Our GO membranes could help solve this problem.

GO membranes also have the potential to be used for portable water purifiers. The small pore size of the membranes means all of the bacteria present in dirty water, and most of the other impurities, will be sieved out with only pure water passing through. This technology would be hugely useful in the developing world. The membranes also show promise for use in water desalination, but we’re not quite there yet.

The membranes also have the ability to separate gases, meaning in the future they could be used to control greenhouse gas emissions and to purify hydrogen related clean energy gases.

GO membrane technology could assist in the production and purification of clean biofuels. 

Do you think graphene oxide membranes have the potential to be used for large scale water filtration or do you believe this would be impractical?

The membrane technology that we are developing could definitely be used for large scale water filtration.

Firstly, graphene oxide can be manufactured on a large scale meaning the materials are readily available. Secondly, the membranes are produced with little difficulty, even simple membranes formed by evaporating water from a GO suspension results in a GO membrane that performs well.

Finally, and most importantly, the membranes already show amazing properties for sieving impurities from water. Of course, at our current stage, we still need to work hard to address several issues on its practical applications, but our research team are working on this and I’m confident we will get there.

How does your research on graphene membranes fit into the wider picture, with the other research being undertaken at the National Graphene Institute?

The National Graphene Institute at the University of Manchester

When do you expect this technology to become widely available? What obstacles must be overcome before this happens?

We don’t have a detailed timeline yet. At our current stage, among a lot of possible applications, we are assessing them for one or two applications which could be realized on a large scale.

Our main obstacle is that we need more industrial partners to fill the gap between the lab experiments and pilot scale productions, we then could conduct application-oriented research to finalize the end products.

Castor oil

Oils, including olive, castor and coconut, are rich in vitamins, minerals and antioxidants. This means that they not only moisturize, hydrate and replenish, but in terms of your skin, they will also offer anti-aging properties. From avocado to sweet almond, each oil offers their own unique benefits — but today, let’s focus on castor oil.

11 ways to use castor oil for better skin and hair

Although fairly common, castor oil is not generally as well known as say olive oil. High in vitamin E, minerals, proteins and even beneficial fatty acids, castor oil is great for both your skin and hair. If you have a bottle lying around your home, it’s time to put it to good use — here’s how.

1. Enhance the natural look of your hair

Castor oil can enhance the look and feel of your hair, making it look both thicker and richer. Locking in moisture, this oil is what’s known as a humectant, making each strand of hair look that much healthier. After you shower and towel dry your hair, apply a small amount of slightly warmed castor oil, working it into the strands of your hair.

2. Cleanse your skin

Whether you’d like to wash off makeup or benefit from a deep clean, castor oil can help cleanse your pores. In order to benefit from an effective deep cleanse, mix a small amount of castor oil with jojoba oil (1:1 ratio). Massage these oils into your face gently, covering the entire surface of your face. After 10 minutes, wash your face with a warm cloth. This steaming process will help remove excess oil, dirt and other pore-clogging material.

3. Target fungal skin conditions

Whether you’re suffering from athlete’s foot or ringworm, castor oil is rich in a biochemical known as undecylenic acid — which helps target fungal growth. It’s recommended that you mix castor or with coconut oil, applying it too problematic areas repeatedly until cured.

4. Reduce the appearance of stretch marks

There are a number of reasons why one may suffer from stretch marks, including the effects of puberty and pregnancy. Castor oil is high in what’s known as ricinoleic acid, a fatty acid that helps target the appearance of stretch marks. Massage castor oil into the desired area and wrap with a cotton cloth, allowing the oil to penetrate the skin for 15 to 20 minutes. Repeat on a regular basis for three to four weeks.

5. Fade scars

If you have scars from when you had chickenpox or acne,, castor oil can help you reduce their appearance. Due to its high fatty acid content, castor oil will penetrate through the epidermal layer,helping to heal the scar tissue by promoting new skin cell growth. Apply before bed, massaging the oil deep into the skin. Leave the oil on overnight and wash it off the next morning.

6. Treat acne

Speaking of scars from acne, why not treat acne before it has a chance to scar your skin? Once again, the fatty acid known as ricinoleic acid helps fight acne-causing bacteria. This is especially effective for cystic acne, which is generally more severe. Wash your face, then apply a few drops of castor oil, rubbing it into the affected area. Wash an hour later, or leave on overnight before rinsing.

7. Use as all-natural massage oil

Although you can treat many surface conditions with castor oil, the benefits are more than skin deep. When using as a massage oil, you can help enhance circulation and target sore, achy muscles and joints. Your scalp is also a great area to massage, helping target problematic dandruff. Just remember, this oil can stain your clothes. Wear old clothing after applying it to your body.

8. Balance scalp pH

Ricinoleic acid has been found to potentially help balance scalp pH, replenishing natural oils and promoting positive hair health. In turn, this can help undo some of the damage that has been caused by harsh hair products. When the pH of your scalp is either too alkaline or too acidic, this can lead to bacterial or fungal issues, an itching scalp and dandruff.

9. Supports hair growth

There have been many cases where individuals swear by castor oil for hair growth, helping to enhance the growth rate. When applied to the scalp, this oil penetrates deep into the pores of your hair follicles, providing nourishment. Work around three tablespoons of castor oil into your scalp. Leave it on for 20 minutes before washing it out with an all-natural shampoo.

10. Soothe bug bites and stings

When you want to soothe an insect bite or sting, castor oil can help reduce itching and encourage more rapid healing. Offering both anti-inflammatory and antibacterial properties, castor oil will help soothe and heal when applied to itchy bites. Simply apply a small amount to the affected area and repeat throughout the day.

11. Combat lines and wrinkles

The fatty acids found in castor oil will penetrate deep into the skin, stimulating the production of elastin and collagen. It will also target dark bags and the appearance of crow’s feet. Since the skin around your eyes is so delicate, it’s more prone to damage. To apply, make sure you cleanse your skin, applying a small amount of castor oil around the edges of your eyes and forehead.

Castor oil is not only effective, it’s cost-effective. It helps you benefit from a wide range of uses with just one bottle. Whether you want to brighten the look of your hair or combat eczema, every home should have a bottle of castor oil in the medicine cabinet. It’s time to re-think not only what you put in your body, but what you put on your body as well.

BPA FREE…….????

In 2008, the possible health risks of Bisphenol A (BPA) — a common chemical in plastic — made headlines. Parents were alarmed, pediatricians flooded with questions, and stores quickly sold-out of BPA-free bottles and sippy cups.

Where do things stand now? Have plastic manufacturers changed their practices? How careful does a parent need to be when it comes to plastics and BPA? Here’s the latest information we have about possible BPA risks.

BPA Basics

BPA is a chemical that has been used to harden plastics for more than 40 years. It’s everywhere. It’s in medical devices, compact discs, dental sealants, water bottles, the lining of canned foods and drinks, and many other pro

More than 90% of us have BPA in our bodies right now. We get most of it by eating foods that have been in containers made with BPA. It’s also possible to pick up BPA through air, dust, and water.

BPA was common in baby bottles, sippy cups, baby formula cans, and other products for babies and young children. Controversy changed that. Now, the six major companies that make baby bottles and cups for infants have stopped using BPA in the products they sell in the U.S. Many manufacturers of infant formula have stopped using BPA in their cans, as well.

According to the U.S. Department of Health, toys generally don’t contain BPA. While the hard outer shields of some pacifiers do have BPA, the nipple that the baby sucks on does not.

BPA Risks

What does BPA do to us? We still don’t really know, since we don’t have definitive studies of its effects in people yet. The U.S. Food and Drug Administration used to say that BPA was safe. But in 2010 the agency altered its position. The FDA maintains that studies using standardized toxicity tests have shown BPA to be safe at the current low levels of human exposure. But based on other evidence — largely from animal studies — the FDA expressed “some concern” about the potential effects of BPA on the brain, behavior, and prostate glands in fetuses, infants, and young children.

Bisphenol A is used primarily to make plastics, and products using bisphenol A-based plastics have been in commercial use since 1957.At least 3.6 million tonnes (8 billion pounds) of BPA are used by manufacturers yearly. It is a key monomer in production of epoxyresins and in the most common form of polycarbonate plastic. Bisphenol A and phosgene react to give polycarbonate under biphasic conditions; the hydrochloric acid is scavenged with aqueous base:

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Diphenyl carbonate may be used in place of phosgene. Phenol is eliminated instead of hydrochloric acid. This transesterification process avoids the toxicity and handling of phosgene

Nobel Prize in Chemistry 2016

5 October 2016

Stoddart’s study showed that molecular machines could influence objects many magnitudes larger than themselves, but looking beyond switches, scientists have since moved on to designing more complex motor-based systems.

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The rotaxane made by Stoddart’s group could bend gold foil: the macrocycles (blue) move closer together when oxidised

The Royal Swedish Academy of Sciences has decided to award the Nobel Prize in Chemistry 2016 to

Jean-Pierre Sauvage
University of Strasbourg, France

Sir J. Fraser Stoddart
Northwestern University, Evanston, IL, USA

and

Bernard L. Feringa
University of Groningen, the Netherlands

“for the design and synthesis of molecular machines”

They developed the world’s smallest machines

A tiny lift, artificial muscles and miniscule motors. The Nobel Prize in Chemistry 2016 is awarded to Jean-Pierre Sauvage, Sir J. Fraser Stoddart and Bernard L. Feringa for their design and production of molecular machines. They have developed molecules with controllable movements, which can perform a task when energy is added.

The development of computing demonstrates how the miniaturisation of technology can lead to a revolution. The 2016 Nobel Laureates in Chemistry have miniaturised machines and taken chemistry to a new dimension.

The first step towards a molecular machine was taken by Jean-Pierre Sauvage in 1983, when he succeeded in linking two ring-shaped molecules together to form a chain, called a catenane. Normally, molecules are joined by strong covalent bonds in which the atoms share electrons, but in the chain they were instead linked by a freer mechanical bond. For a machine to be able to perform a task it must consist of parts that can move relative to each other. The two interlocked rings fulfilled exactly this requirement.

The second step was taken by Fraser Stoddart in 1991, when he developed arotaxane. He threaded a molecular ring onto a thin molecular axle and demonstrated that the ring was able to move along the axle. Among his developments based on rotaxanes are a molecular lift, a molecular muscle and a molecule-based computer chip.

Bernard Feringa was the first person to develop a molecular motor; in 1999 he got a molecular rotor blade to spin continually in the same direction. Using molecular motors, he has rotated a glass cylinder that is 10,000 times bigger than the motor and also designed a nanocar.

2016’s Nobel Laureates in Chemistry have taken molecular systems out of equilibrium’s stalemate and into energy-filled states in which their movements can be controlled. In terms of development, the molecular motor is at the same stage as the electric motor was in the 1830s, when scientists displayed various spinning cranks and wheels, unaware that they would lead to electric trains, washing machines, fans and food processors. Molecular machines will most likely be used in the development of things such as new materials, sensors and energy storage systems.

Hormone


Melatonin
 – Think of melatonin as your biological clock. This hormone is responsible for the way you feel throughout the day as far as alertness is concerned. All those drowsy feelings? Blame the melatonin.

Serotonin – This is the one you can blame for PMS and your moody teenager. Serotonin controls your mood, appetite, and your sleep cycles.

Thyroxin – A form of thyroid hormone, thyroxin increases the rate of your metabolism and also affects protein synthesis, which is the process that cells go through to build protein.

Epinephrine – This is one that you have most likely heard of; it’s also called adrenaline. Among a whole list of other things, epinephrine is responsible for what is known as the, “fight or flight” response. This is the hormone that tells you when to fight and when it’s best to run. Some of the bodily responses demonstrated when this hormone kicks in are dilated pupils, increased heart rate, and tensing of the muscles.

Norepinephrine – Also called noradrenaline, this hormone controls the heart and blood pressure. Norepinephrine also contributes to the control of sleep, arousal, and emotions. Obvious effects take place when there is too much or too little of this hormone. Too much gives you an anxious feeling while too little can leave you feeling depressed or sedated.

Dopamine – This controls the heart rate and also assists in perception; deciphering what is real and what is not.

Antimullerian Hormone – An inhibitor for the release of prolactin, the protein responsible mainly for lactation.

Adiponectin – This is a protein hormone, it regulates metabolic processes such as the regulation of glucose.

Adrenocorticotropic Hormone – This assists in synthesizing corticosteroids, which are responsible for stress response, blood electrolyte levels, and other physiologic systems.

Angiotensinogen – Responsible for the narrowing of blood vessels; a process known as vasoconstriction.

Antidiuretic Hormone – This hormone is also known by other names, but it is mainly responsible for retaining water within the kidneys.

Atrial Natriuretic Peptide – A peptide hormone secreted by the cells of the heart and other muscles, it’s mostly involved with the control of water, sodium, potassium, and fat within the body.

Calcitonin – Aids in constructing bone and reducing blood calcium.

Cholecystokinin – Aids in the release of digestive enzymes for the pancreas and acts as an appetite suppressant.

Corticotrophin-Releasing Hormone – Releases cortisol in response to stress.

Erythropoietin – Stimulates the production of erythrocytes, which are blood cells responsible for delivering oxygen.

Follicle-Stimulating Hormone – Stimulates the follicles within the sex organs of both males and females.

Gastrin – Secretes gastric acid.

Ghrelin – Hunger stimulant as well as aiding in the secretion of the growth hormone.

Glucagon – Helps to increase the blood glucose level.

Growth Hormone-Releasing Hormone – As its name clearly implies, this hormone releases the growth hormone.

Human Chorionic Gonadotropin – Keeps the immune system from attacking a forming embryo during pregnancy.

Growth Hormone – Helps to stimulate growth and the reproduction of cells.

Insulin – Responsible for several anabolic effects, primarily glucose intake.

Insulin-Like Growth Factor – Has the same effects as insulin while also regulating the growth and development of cells.

Leptin – Slows down the appetite while simultaneously speeding up metabolism.

Luteinizing Hormone – Aids ovulation in women and testosterone production in men.

Melanocyte Stimulating Hormone – Produce melanocytes, which are responsible for the pigment in skin and hair.

Orexin – Increases the appetite while also increasing your alertness and energy levels.

Oxytocin – A hormone that plays a major role in reproduction, it aids in orgasm and is also responsible for the release of breast milk.

Parathyroid Hormone – Among other functions, this hormone is mainly responsible for the activation of Vitamin D.

Prolactin – A major contributor in sexual satisfaction and the production of breast milk.

Secretin – Inhibits gastric acid production.

Aldosterone – Mainly responsible for absorbing sodium in the kidneys to increase the volume of blood within the body.

Testosterone – The major male hormone, testosterone is responsible for sex drive, development of the sex organs, and the changes that take place during puberty.

Androstenedione – Essentially estrogen.

Estradiol – In males, this hormone is responsible for preventing what is basically known as cell death of the germ cells. In females, this hormone is in overdrive. Among other things, estradiol accelerates height and metabolism, maintains the blood vessels and skin, aids in water retention, and even aids in hormone-sensitive cancers.

Progesterone – A major contributor to the body’s support of pregnancy.

Lipotropin – Stimulates the production of pigment by aiding in melanin production.

Brain natriuretic peptide – Aids in reducing blood pressure.

Histamine – A hormone based in the stomach, histamine aids in the secreting of gastric acid.

Endothelin – Controls muscle contractions within the stomach.

Enkephalin – Simply a pain regulator.

WATER PURIFICATION

There are twenty-five methods to purify water, divided into four categories: separation, filtration, chemicals, oxidation.
There are five types of contaminants that are found in water: particulates, bacteria, minerals, chemicals, and pharmaceuticals. Methods to remove these elements range from simple and inexpensive to elaborate and costly. Often to achieve purely potable water, several technologies must be combined in a particular sequence. Listed here are general brief descriptions of the twenty-five methods to purify water.

SEPARATION: HEAT, LIGHT & GRAVITY

SEDIMENTATION gravitationally settles heavy suspended material.
BOILING WATER for 15 to 20 minutes kills 99.9% of all living things and vaporizes most chemicals.  Minerals, metals, solids and the contamination from the cooking container become more concentrated.
DISTILLATION boils and recondenses the water, but many chemicals vaporize and recondense in concentration in the output water.  It is also expensive to boil & cool water.
ULTRAVIOLET LIGHT is a good bactericide, but has no residual kill, and works only in clearly filtered water.   Still in its infancy stage is a new technology involving super white light.


CHEMICALS

CHLORINE is common, cheap, but extremely toxic.  It does not decrease physical or chemical contamination, it does increase colesterol formations, is a carcinogen, and causes heart disease.
BROMINE, used in pools and spas, doesn’t smell or taste as bad and doesn’t kill bacteria very well.
IODINE is not practical, and is mostly used by campers.
HYDROGEN PEROXIDE kills bacteria with oxygen, is chemically made and is very toxic.  It is used in emergencies.
SILVER is an effective bactericide but a cumulative poison which concentrates and doesn’t evaporate.
NONTOXIC ORGANIC ACIDS should be used with caution in large water plants only.
LIME AND MILD ALKALINE AGENTS should also be used with caution only by large water plants, or only for laundry.
NEUTRALIZING CHEMICALS react with the unwanted chemicals and produce outgases and a sediment, but levels of need vary.
COAGULATION-FLOCCULATION adds chemicals which lump together suspended particles for filtration or separation.
ION EXCHANGE exchanges sodium from salt for calcium or magnesium, using either glauconite (greensand), precipitated synthetic organic resins, or gel zeolite, thus softening the water.  Minerals, metals, chemicals or odors are not affected, and the water is salty to drink.

FILTRATION

SLOW SAND of 1 cubic meter passes about 2 liters/min, and does a limited bacteria removal.
PRESSURE SAND of 1 cubic meter passes about 40gpm and must be backwashed daily.
DIATOMACEOUS EARTH removes small suspended particles at high  flow rates, must be daily backwashed and is expensive.
POROUS STONE/CERAMIC filters are small but expensive, and do not effect chemicals, bacteria or odors.
PAPER or CLOTH filters are disposable and filter to one micron, but do not have much capacity.
CHARCOAL:
-COMPRESSED CHARCOAL/CARBON BLOCK is the best type of charcoal  filter, can remove chemicals and lead, but is easily clogged,  so  should be used with a sediment prefilter.
-GRANULAR CHARCOAL is cheaper, but water can flow around the  granules without being treated.
-POWDERED CHARCOAL is a very fine dust useful for spot cleaning  larger bodies of water, but is messy and can pass through some filters and be consumed.
REVERSE OSMOSIS uses a membrane with microscopic holes that require 4 to 8 times the volume of water processed to wash it in order to remove minerals and salt, but not necessarily chemicals and bacteria.
ENZYMES &BACTERIA combined can remove contaminants, reduce sludge, and even digest oil. See recent article on enzymes & bacteria.
PLANTS There are numerous plants, animals and organisms that are quite effective in filtering water.

OXIDATION

AERATION sprays water into the air to raise the oxygen content, to break down odors, and to balance the dissolved gases.  However, it takes space, is expensive, and picks up contaminants from the air.
OZONE is a very good bactericide, using highly charged oxygen molecules to kill microorganisms on contact, and to ozidize and flocculate iron, manganese and other dissolved minerals for post-filtration and backwashing.
ELECTRONIC PURIFICATION and DISSOLVED OXYGEN GENERATION creates super oxygenated water in a dissolved state that lowers the surface tension of the water and effectively treats all three types of contamination: physical, chemical and biological.

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